SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षडावश्यकबालावबोधवृत्ति [$10). २७-३० नपुंसकवेद रूप त्रिन्हि वेद । अंगु कायु, संगु रागु, जनि जन्म, ईंहं एकत्रीशही तणा अभाव एकत्रीशगुण । तीहं करी समिद्ध संजुक्तु । अथवा पंचविधु ज्ञानावरणु । नवविधु दंसणावरणु । दसणमोह, चारित्रमोह रूप बि मोहनीय भेद। पांच अंतराय भेद । चत्तारि आयु भेद । शुभाशुभरूप बि नाम-कर्म भेद । उच्चनीच लक्षण बि गोत्रकर्म भेद । सात-असातरूप बि वेदनीयकर्म भेद । सर्वइ मिलिया एक5 त्रीस, ईंहं सवहीं तणा अभाव एकत्रीस गुण । तीहं करी 'समिद्ध' सहितु । 'सिद्ध' किसउ अर्थ ? पंचेतालीस लक्षयोजन प्रमाण जिसउ ऊत्ताणउं छत्रु हुयइ इसइ आकारि स्फटिक रत्नमय छ। सिद्धिशिला, तेह ऊपरि एकु जोयणु आकाशदेसु तेह नइ उपेलइ चउवीसमइ भागि' त्रिन्हिसइं सत्रिहा नेत्रीसा धनुह प्रमाणि आकाशदेसि चरमदेह त्रिभागन्यून अमूर्तजीव ज्योतिःस्वरूप संप्राप्नु नित्यु जिहां एक सिद्धज्योति तिहां अन्योन्य समवगाढ परस्पर प्रविष्ट अनंत सिद्धज्योति छई। तथा च भणितं10 जत्थ य एगो सिद्धो तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का। . अन्नुन्नसमोगाढा चिटुंति तहिं सयाकालं ॥ . [२७] बुद्ध ज्ञाततत्वु । 'जिनं नमिमो' अम्हे एवं गुणविशिष्टु जिनु नमउं नमस्करउं । इसी चिंता मुक्तावस्था चिंता। $10) नरक गति तिर्यंच गति अकर्मभूमि गति वर्जननिमित्तु ऊर्ध्व, अधो, वाम, दक्षिण, 15 पृष्टि लक्षण तिर्यग्लक्षण । त्रिन्हि दिसि तिहां, निरीक्षणविरति जोइवा तणउ निषेधु । तथा च भणितं छउमत्थ समोसरणत्थ तह य मुक्खत्थ तिनि वत्थाओ। तिदिसि निरिक्खणविरई तिरि निरया कम्मभूमीसु ।। [२८] मन-वचन-कायलक्षण त्रिन्हि जोग तीहं नइ विषइ भेदि करी जिहां उभा रहियइ तिहां वस्त्रांचलि करी त्रिन्हि वार प्रमार्जनु कीजइ। एउ त्रिविधु भूमिप्रमार्जनु कहियइ । जिणपडिमाणमवग्गहु निट्ठिो होइ पुव्वसूरीहिं । उक्कोस सहिहत्थो जहन्नं नव सेसु मज्झिमओ॥ [२९] जिनप्रतिमा हूंता उत्कृष्ट पदि साठि हाथे थिकां देव वांदियई। जघन्य पदि नवे हाथे थिकां देव वांदियई । अनेरउ नव हाथ ऊपहरउ, साठि हाथ माहि सगलू जघन्यु अवग्रह कहियइ । संकीर्ण थानकि पुणि अति इकडां जिनबिंब कन्हइ थाई चैत्यवंदना न कीजई । अक्षर अर्थ प्रतिमा त्रिहुं तणउं करणु 25 विधिवत् सूचवेवउं । यथा-अक्षरमात्रा बिंदुसंयुक्तादि भेद' शुद्ध ऊचरिवा । अथु गुरूपदेशानुसारि मन माहि चितवेवउ । प्रतिमा-जिनबिंबु तिहां दृष्टि करेवी। जिनमुद्रा, योगमुद्रा, मुक्ताशुक्तिकमुद्रा लक्षणु मुद्रा-त्रिकु चैत्यवंदनासूत्र-व्याख्यान माहि कहीसिइ। कायनिरोध, मनोनिरोध, वचननिरोध लक्षणु प्रणिधानत्रिकु । अप्रतिलेखिति, दुःप्रतिलेखिति, अप्रमार्जिति, दुःप्रमार्जिति थानकि कायव्यापारनिवारणु। विधिपूर्व क्षमाश्रमण-प्रदान प्रमार्जनादि विषइ कायव्यापारप्रयोजनु । आर्त्त-रौद्रध्यान विषइ मनोव्यापारनिषेधनु 30 चैत्यवंदनार्थचिंतन विषइ मनोव्यापारप्रयोजनु । राजकथादि विषइ वचनव्यापारनिषेधनु । मधुरस्वरालापकोचारण संपदास्तवन विषइ वचनव्यापारप्रवर्त्तनु । प्रणिधा नत्रिकु कहियइ । तथा च भणितं अक्खर अत्थो पडिमा भणियं वन्नाइ तियमेयं । जिणमुद्द-जोगमुद्दा मुत्तासुत्तीय तिन्नि मुद्दाओ ।। ... [३०] कायमणोवयणविरोहणं च पणिहाण तियमेयं । $9) 1 Bh, विभागि। 2 Bh. सत्रिहां वेत्रीसां। $10) 1 Bh. संयुक्तासंयुक्तादि भेद। 2 B. त्रिऊ। 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy