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________________ $8 - 59 ). २३-२६] श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत मालवकैशिकी रागगर्भितु सर्वभाषानुकारी सर्वसंशयापहारी योजनविस्तारी सकलक्लेशापसारी अमृतरसावतारी दिव्यु ध्वनि देशनानादु स्वभाविहिं केवलज्ञानोत्पत्तिसमयानंतर जिनमुखहूंतउ विस्तरइ । तथा च भणितं वासोदगस्स च जहा वनाई हुंति भायणविसेसा। सव्वेसि पि सभासा जिणभासा परिणमइ एवं ॥ । [२३] । देवा दैवीं नरा नारी शबराश्चापि शाबरीम् । तियञ्चोऽपि हि तैरश्चीं मेनिरे भगवगिरम् ॥ [२४] रंगद्गांगतरंग चंग चामर अमर बिहुँ गमे वीजई। ४ । सुवर्णरत्नमय सपादपीठ चउहुं दिसि चत्तारि सिंहपीठ देव थापइं । ५। केवलज्ञानानंतरसमइ जिम सूर्यबिंबरस्मि करी जननयन रहई प्रतिघाउ हुयइ तिम जिनेंद्रतनु-10 कांति करी पुणि हुयइ तिणि कारणि देहकांति संपिंडित करी सूर्यमंडल परिमंडलु भामंडलु पृष्टिप्रदेसि देव करइं। ६। आकाशसंस्थित देव देवदुंदुभिनिनादु जिननादपुष्टिकारकु करई । ७ । त्रैलोक्याधिपत्यसंसूचिका श्वेतातपत्रत्रयी जिनमस्तकि देव धरई। ८ । 'सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणां संति' किसउ अर्यु त्रिभुवनातिसायियां । प्रातिहार्य पूजाप्रकार 15 जिनेश्वरहं तणा ति पुणि किसा ? अहार्य अनेरां देवहं हरिवा प्रापिवा शक्य नहीं, तीहं करी । $8) 'रोचिष्णु श्रीभविष्णु' त्रिभुवनजनकाम्यलक्ष्मीभविष्णु भवनशीलु । तथा च भणितं पडिवनचरमतणुणो अइसइ लेसं पि जस्स दट्टणं । भव-हुत्त-मणा जायंति जोगिणो तं जिणं नमह ॥ [२५] 'भुवनजनतमो हर्तुमत्युत्सहिष्णु' भुवनजन रहइं तम अज्ञान हरिवा कारणि अति उत्साहकरण-20 शीलु । 'वर्तिष्णुादशानामुपरि परिषदां' आग्नेय दिसि गणधरेंद्र, वैमानिकदेवी, साध्वी लक्षण' त्रिन्हि सभा। नैऋति दिसि ज्योतिर्-व्यन्तर-भवनपति देवी सभा त्रिन्हि। वायव्य दिसि तीहंना देवहं तणी सभा त्रिन्हि । ऐशानदिसि वैमानिक देव, नर नारी सभा त्रिन्हि । इसि परि चउहुं विदिसि जि छइं बारह सभा ती माहि सात हाथ ऊंची मणिपीठिका तेह ऊपरि कटीप्रमाण सिंहासनु तिहां समुपवेशभावइतउ 'उपरिवर्तिष्णु' उपरि वर्तमानु । 'तत्त्वसिद्ध्यै' जीवाजीवादि नवतत्त्व सिद्धिनिमित्त प्रमाणु 25 स्याद्वादाभिधानु सप्तभंगीप्रमाणमार्गप्रसिद्ध, तिणि करी अभिदधतउ उपदिशतउ हूंतउ, 'मुदे'- परमानंदनिमित्तु, 'मे' मू रहइं 'अस्तु' हुउ । देवाधिदेवप्रस्तावइतउ श्रीमहावीरु । इसी चिंता समवसरणावस्थाचिंता । __$9) अथ मोक्षावस्था लिखियइ संठाण-वन-रस-गंध-फास-वेयंग-संग-जणिरहियं । इगतीसगुणसमिद्धं सिद्धं बुद्धं जिणं नमिमो॥ [२६] 30 दीर्घ, वृत्त, त्रिकोण, चतुष्कोण, परिमंडल नामक पांच संस्थान । कृष्ण, नील, लोहित, हालिद्द, सक्किल नामक पांच वर्ण । तिक्त, कटक, कषाय, आम्ल, मधुर नामक पांच रस। सुरभि, दरभि नामक वि गंध । गुरु, लघु, मृदु, कठिन, स्निग्ध, रूक्ष, उष्ण, शीत नामक आठ फरस । पुरुषवेद, स्त्रीवेद, $8) 1 B. omits. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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