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________________ xxvii धार्मिक उत्सवों में बहुत धन व्यय किया करते थे। इस वंश वालोंके नामों के पहले ठक्कुर शब्द का व्यवहार-हुआ है। इससे जाना जाता है कि इनके पूर्वजों में से किसी ने किसी राजसत्ता द्वारा बड़ी जागीर प्राप्त की थी और धार्मिक कार्यों में बहुत कुछ द्रव्य व्यय करने के कारण या व्यापारादि के कारण बहुत सम्पत्तिशाली होना चाहिये। यह वंश खरतर गच्छ का परम अनुरागी था। इसलिए खरतरगच्छ के प्रसिद्ध पूर्वाचार्य जैसे कि जिनकुशल सूरि, जिनचन्द्र सूरि आदि प्रभावशाली आचार्यों के उपदेशों से इस वंश वाले श्रावकों ने अनेक तीर्थस्थान और नगरों में जैन मंदिर बनवाये तथा उन उन आचार्यों द्वारा प्रतिष्ठादि महोत्सव कार्य सम्पन्न करवाये। खरतरगच्छ बृहद गर्वावली नामक महत्त्व के ऐतिहासिक ग्रन्थ में (जो हमने सिंधी जैन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत ग्रन्थांक ४२ के रूप में प्रकट किया है।) इस वंश के अनेक कुटुम्बों के परिचायक उल्लेख मिलते हैं। तरुणप्रभ सुरि के प्रस्तुत बालावबोध ग्रन्थ के आलेखन और प्रचार में जिस ठ. बलिराज का वर्णन है वह इसी मंत्रीदलवंशीय एक कुटुम्ब का प्रसिद्ध पुरुष था। वह बहुत धर्मानुरागी और दानशील' था। उसी की विशेष अभ्यर्थना के कारण तरुणप्रभ सूरि ने प्रस्तुत बालावबोध की रचना की और उसीने सर्वप्रथम इस ग्रन्थ की अनेक प्रतिलिपियाँ लिखवाई थी। श्री तरुणप्रभ सूरि ने जैन ग्रंथकारों की प्राचीन परंपरा का अनुसरण करते हुए ग्रन्थ के अन्त में जो प्रशस्ति लिखी है, उसकी पद्यसंख्या ३३ है। इसमें से १२ पद्य तो उन्होंने अपने पूर्वाचार्य तथा निजके परिचयस्वरूप लिखे हैं, शेष २० पद्यों में ग्रन्थ का आलेखन कराने वाले ठ. बलिराज के पूर्वजों आदिके परिचयस्वरूप लिखे हैं। इसके पूर्वजों में मंत्रीदल के वंश में पहले एक ठ. दुर्लभ नामका मुख्य पुरुष हुआ उसका पुत्र ठ. दामर हुआ। उसका पुत्र ठ. भूपाल हुआ। उस भूपाल के ठ. देवपाल, ठ. तेजपाल, ठ. राजपाल, जयपाल, सहणपाल, ठ. नयपाल नामक ६ पुत्र हए। इनमें से देवपाल के हरिराज और हेमराज नामक दो पुत्र हुए। ठ. हरिराज की रासलदे नामक पत्नी थी। जिसके ठ. चाहड़ और ठ. धन्धक नामके दो पुत्र हुए। इनमें से ठ. चाहड बड़ा बुद्धि मान, लक्ष्मीवान, गुणवान और राजा का प्रसादपात्र था। उसने तीर्थों की उन्नति के लिये तथा गरुओं की भक्ति के लिये और सार्मिक भाईयों की सेवा के लिये बहुत सा धन व्यय किया। वह षडावश्यक कर्म करनेवाला श्रद्धावान पुरुष था। इस ठ. चाहड़ की पत्नी सहजलदे थी जो सुकृत कार्य- करने में उसके समान चित्त वाली थी। इनके नयनसिंह विजयसिंह, जवसिंह और कर्णसिंह नामके चार पुत्र हुए। इनमें विजयसिंह बड़ा दानी और धर्मप्रिय पुरुष था। उसने अनेक तीर्थयात्राएँ को और सातों क्षेत्रों में खूब धन व्यय किया। वह श्री जिनकुशल सूरि का अत्यन्त भक्त था। उनकी पदस्थापना का बड़ा महोत्सव जब पाटण में हुआ, तब वह दिल्ली से बड़े समुदाय के साथ वहाँ आया और बड़ी भक्तिपूर्वक आचार्य पद की स्थापना करवाई। इस विजयसिंह की वीरमदे नामक धर्म पत्नी थी जो सुप्रसिद्ध मदनपाल की पुत्री थी, उसकी पूणिनी नाम की द्वितीय पत्नी थी जो वरदेव की पुत्री थी उसी तरह भीरू नामक एक अन्य स्त्री थी। वीरमदे नामक पत्नी से विजयसिंह को बलिराज और गिरिराज नामके दो पुत्ररत्न हुए। ये दोनों बड़े तेजस्वी, ऋद्धिमान और राज्यमान्य थे। इन दोनों भाइयों का परस्पर अत्यन्त गाढ़ स्नेहसम्बन्ध था। विजयसिंह की दूसरी स्त्री पूणिनी के उदयराज, कमलराज, अश्वराज और साधारण नामके चार पुत्र थे। बलिराज की शील, शालिन्य, कौलिन्य आदि गुणों को धारण करनेवाली कोल्हाई नामकी बुद्धिशालिनी पत्नी थी वह जिनधर्म में बड़ी आस्था रखनेवाली गुरूभक्ता थी, उसको क्षेमसिंह नामका पुत्र हुआ जिसकी हीरू नामक स्त्री थी। उनका लक्षराज नामक पुत्र हुआ जो बहुत ही भाग्यशाली होकर बड़ा धर्मानुरागी था। इस प्रकार पुत्र पौत्रादि परिवारयुक्त बलिराज धार्मिक जनों के लिये कलिकाल में कल्पद्रुम के समान शोभायमान हो रहा था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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