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तरुणप्रभाचार्य ने अन्त में लिखा है कि बलिराज ने मेरे पास बैठ कर श्रद्धापूर्वक इस पड़ावश्यक भाषा वृत्ति का श्रवण किया और फिर इसने अपने और अन्य जनों के हितार्थ पुस्तकरूपमें इसको लिखवाया ।
इस प्रशस्तिगत उल्लेखानुसार बलिराजने जो इस प्रस्तुत ग्रन्थ की पुस्तक के रूपमें प्रतिलिपियाँ करवाई। उन्हीं में की, कुछ प्रतियाँ बीकानेर, पूना, पाटण आदि के ग्रन्थभंडारों में आज तक विद्यमान है। उन्हीं में की ३, ४ प्रामाणिक प्रतियों के आधार पर भाषाशास्त्रविद् डॉ. प्रबोध पंडित ने इस ग्रन्थ का प्रस्तुत सुसंपादन किया है ।
विद्वान संपादक ने अपने सम्पादन विषयक कार्यपद्धति का जो परिचय दिया है, उसमें उपयोग में ली गई प्राचीन प्रतियों का यथेष्ठ वर्णन दे दिया है ।
प्रस्तुत ग्रंथ के प्रकांशन में विलंब के कुछ कारण
जैसा कि ऊपर सूचित किया है, इस ग्रन्थ का मुद्रणकार्य आज से कोई १६, १७ वर्ष पहले चालू कराया था । परन्तु उपर्युक्त अनेक कारणों से इस ग्रन्थ का मुद्रणकार्य पूर्ण होने में काफी विलंब होता गया, चूंकि सिंधी जैन प्रन्थमाला के संचालन एवं प्रकाशन की व्यवस्था का सम्पूर्ण भार हमारे ही ऊपर निर्भर था। सन १९५० से हमारी साहित्यिक कार्यप्रवृत्ति बम्बई और राजस्थान के जयपुरजोधपुर के बीच विस्तृत होकर कुछ विभक्त सी हो गई । हम बम्बई में जिस तरह स्वस्थापित तथा स्वसंचालित सिंधी जैन ग्रन्थमाला का कार्यभार सम्भालते थे, उसी तरह राजस्थान में हमारे द्वारा संस्थापित तथा सरकार द्वारा संचालित प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान के तत्त्वावधान में हमारे ही द्वारा प्रारंभित एवं संपादित राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला का सम्पूर्ण कार्यभार भी हमारे ही ऊपर निर्भर था। इसलिये इन दोनों ग्रन्थमालाओं के कार्य में समान रूपसे व्यस्त रहने के कारण बम्बई की म्रन्यमाता के कुछ ग्रन्थों के प्रकाशन में अत्यधिक विलंब होता रहा।
डॉ. श्री. प्रबोध पंडित द्वारा ग्रन्थ का सम्पादन व मुद्रणकार्य कोई ८-१० वर्ष पूर्व ही पूर्ण हो चुका था परन्तु पिछले कई वर्षों से हमारी शारीरिक अस्वस्थता के कारण हमारा बम्बई जाना न हो सका और इसलिये इस ग्रन्थ को समय पर प्रकाशित करने की योग्य व्यवस्था हम न कर सके । ग्रन्थ छपकर आठ-दस वर्षों से बम्बई के भारतीय विद्या भवन के गोदाम में पड़ा हुआ है और हम अपनी दुर्बलता के कारण सिंधी जैन ग्रन्थमाला का यह एक विशिष्ट ग्रन्थ रत्न आजतक विद्वानों के करकमल में उपस्थित करने में असमर्थ से रहे ।
डॉ. प्रबोध पंडित कुछ समय से दिल्ली युनिवर्सिटी में हैं । वहाँ से ये कभी कभी पत्र लिखकर मुझे सूचित करते रहे कि प्रस्तुत ग्रन्थका जो मुख्य सम्पादकीय वक्तव्य मुझे लिखना है उसे मैं लिखकर भारतीय विद्या भवन को भेज दूं और उसको सूचित कर दूं कि ग्रन्थ को प्रकाशित कर देने की समुचित व्यवस्था कर दी जाय। परन्तु पिछले कई वर्षों से में यहाँ जिस चंदेरिया नामक ग्राम (चितौड़गढ़ के पास) में निवास कर रहा हूँ। मेरे पास साहित्यिक विषय की कोई विशेष सामग्री उपलब्ध न होने से और मेरी आँखों की ज्योति भी प्रायः क्षीण हो जाने के कारण स्वयं लिखने-पढ़ने में असमर्थ हो जाने से एवं सहायक लेखक आदि का भी कोई प्रबन्ध न होने से में अपना संचालकीय वक्तव्य लिखने में भी असमर्थसा ही रहा । परन्तु पिछले २, ३ महीने पहले डॉ. श्री प्रबोध पंडि अहमदाबाद में मेरे चिरसाथी एवं परमादरणीय मित्रवर पंडित प्रवर डॉ. श्री सुखलालजी संघवी से इस विषय में कुछ निवेदन किया तो श्री पंडितजी ने मुझे सादर आग्रह एवं कुछ मीठे उपालंभ के साथ लिखा कि मुझे किसी तरह प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रधान संपादकीय वक्तव्य लिख देना चाहिये और ग्रंथ को प्रकाशित कर देने की व्यवस्था कर देनी चाहिये इत्यादि । श्रीमान पंडितजी का आदेश
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