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________________ $627-631) ९११-९१३] श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत २२९ तीहं तणइ अकरणि हूंतइ । तथा 'अस्सद्दहणे'-निगोद पुद्गल परावर्त्तादि सूक्ष्म विचार तणइ असद्दहाण' अप्रत्यइ अतथेति भावि हूंतइ 'विवरीय परूवणाए य' उत्सूत्रार्थ स्थापना विपरीत प्ररूपणा स पुण मरीचि जिम भूरि भव परिभ्रमण कारण हुयइ । तिणि विपरीत प्ररूपणि अनाभोगादिवशि कीधई हूंतइ प्रतिक्रमणु करेवउं हुयई। 628) ईहां शिष्यु पूछइ-श्रावक रहई धर्मोपदेश देवा नउ अधिकारु छइ कि नथी? छइ, 5 इस कहां । जिणि श्रावकि गीतार्थ गुरु कन्हा सूत्राथु सम्यक् सांभलिउ हुयइ, सम्यग् हिया माहि अवधारिउ हुयइ, अति सु निश्चितु कीधउ हुयइ अनइ सदा गुरु परतंत्रु हूयइ, तेह रहई धर्मकथन विषइ किसउ नामु अधिकारु नथी? 'पढइ सुणइ गुणेइ य जणस्स धम्म परिकहेइ ' इत्यादि आगम तणा अनुवादइतउ तथा चूर्णि माहि पुण भणिउं। 'सो जिणदास सावओ अट्ठाम चउद्दसीसु' उववासं करेइ । पुत्थयं वाएइ 'ति। 10 629) अथ संसारसागर परिभ्रमण परायणहं जीवहं रहई सवहीं जीवहं सत्रं वैरु संभवइ । तिणि कारणि सर्व जीव क्षामणा निमित्तु भणइ खामेमि सव्व जीवा सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्व भूएसु, वेरं मज्झ न केणइ । [९११] सव्वइ जीव खमावर्ड जिणि किाणाहं मू ऊपरि वरूयउं कीधउं छइ सु हउँ खमउं, कीधउं अकीधउं15 करी मनउँ इसउ अर्थे । अज्ञानतिमिरावृतलोचनि हूंतइ मई सवहीं जीवहं रहई पूर्विहिं पीडा कीधी छ।। वइ जीव मू दुष्ट चेष्टित रहई खमउं खमाकरउं। कोपु मू ऊपरि म करिजिउ । इसउ अर्थ खमा विषइ। कारणु कहइ-'मित्ती मे सव्व भूएसु' सवहीं जीवहं सउं मू रहई मैत्री सुजनबुद्धि 'वेरै मज्झ न केणइ'' वैरु मू रहइं कही सउं नहीं। किसउ अर्यु ! जि मोक्षलाभ रहई हेतुभूत छइं ज्ञान दर्शन चारित्र ति आपणी शक्ति तणइ अनुसारि तीहं रहई पमाडउं । आपणपा रहई विघातकारकहीं तीहं विषइ20 वैरु न करूं । जिणि कारणि कमठ मरुभूति प्रभृतिकहं जिम भूरिसंसारचारकानुभूति कारणु हुयइ । $630) अथ प्रतिक्रमणाध्ययनु उपसंहरतउ हूंतउ अवसानमंगल दिखालिवा' कहइ। एवमालोइय निंदिय गरहिय दुग्गछिय । तिविहेण पडिक्कतो वंदामि जिणे चउव्वीस।। [९१२] इसी परि आलोई करी सकलातीचार गुरु आगइ प्रकासी करी निंदी करी गरही करी दुग्गंछी25 करी भावसुद्धिपूर्व - ‘तिविहेण पडिक्वंतो' इति त्रिविध, मनि वचनि कायि करी पाप हूंतउ प्रतिक्रांतु निवर्तिउ हूंतउ 'वंदामि जिणे चउव्वीसं' चउवीस जिण ऋषभादिक वर्द्धमानावसान वर्तमान चउवीसी संस्थान वांदउं नमस्करउं॥ ॥ इति श्रावकपतिक्रमणसूत्र विवरणं समाप्तम् । $631) जयति चन्द्रकुलं शुभसंकुलं, कुवलयोद्वलनैककलाकुलम् । गुरुचकोरवरवजमञ्जुलं, विमलकोमलगोकमलाकुलम् ॥१॥ मलकामलगाकमलाकुलम् ॥१॥ [९१३] 30 8627) 1 B. Bh. have dropped-ह-1 8628) 1 B. Bh. have - सुं। 8629) 1 B. Bh. केणय । 2 Bh. omits. 3 Bh. मानउं । 8630) 1 Bh. adds कारणि । 2 Bh. omits श्रावक। 8631) 1 L. चन्द्र अंशु। 2 Bh. कुवलयोज्ज्व ल-। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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