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________________ ૨૮ षडावश्यकबालावबोधवृत्ति [$624-627 ) ९०८-९१० $624) इसी परि सर्व चैत्य सर्व साधु वंदनु करी प्रतिक्रमणकारु श्रावकु आगमिइ कालि सुभु आसंसतउ हूंतउ भणइ । चिरसंचिय पावपणासणिय भवसयसहस्स महणीए । चवीसजिणविणिग्गयकहाइ वोलंतु मे दियहा ॥ [९०८] जिम बीज हूंतउ अंकुरु नीसरइ, सूर्य हूंतउ प्रभापूरु विस्तरइ तिम चउवीस जिण ऋषभ प्रमुख श्रीमहावीरावसान तीहं हूंती कथा नीसरी । तीर्थकर नामोच्चारण गुणोत्कीर्तन लक्षण वचन पद्धति नीसरी 'चउीसजिण विणिग्गय कहा ' कहियइ । तिणि करी मे मू रहई दीह अहोरात्र वोलउं जायउं । ज चउवीस जिन कथा किसी छइ । 'चिरे'ति-चिरकालि प्रभूतसमइ संचितु ऊपार्जिउं जु पापु तेह रहई प्रणांसिका फेडणहारि । तिणिहिं जि कारणि ‘भवसयसहस्स महणीए' भवलक्ष भ्रमणनिवारक। 10. $625) अथ जन्मांतरिहि समाधिबोधि तणी आशंसा कहइ । मम मंगलमरहंता सिद्धा साहू सुयं च धम्मो य।। सम्मद्दिट्ठी देवा दितु समाहिं च बोहिं च ॥ [९०९] अर्हत सिद्ध साधु श्रुतु द्वादशांगु धर्म चारित्रधर्म ए पांचइ 'मम' मू रहई मंगल मांगलिक्यकल्प वर्तई । 'सुयं च ' ईहा च कारु छइ तेहतउ न पुण ए मू रहई मांगलिक्यह जि छइं लोकोत्तम पुण 16 छइं, शरणु पुण छइं, इसउं जाणिवउं । ईहां धर्म माहि श्रुतलाभ छई पुण 'नाणकिरियाहिं मुक्खो ' इसा वचनतउ ज्ञानक्रिया बिहुँ मिलियाई जि हूंता मोक्षु इसा अर्थ जाणाविवा कारणि श्रुतग्रहणु पृथक् कीधउं। तथा सम्यग्दृष्टिदेव अर्हतभक्त सौधर्मेंद्रादिक । अथवा चतुर्विंशति यक्षयक्षिणी लक्षणा' 'दितु' दियउं किस दियउं ? समाधि चित्त स्वस्थता कहियइ । बोधि भवांतरि सम्यक्त्वप्राप्ति सु समाधि अनइ बोधि बि वस्तु दियउं । इति गाथार्थः ॥ 626) ईहां शिष्यु पूछइ । समाधि बोधि दानविषइ सम्यग्दृष्टि देव समर्थ छई कि नथी ? जइ समर्थ नथी तउ प्रार्थना निरर्थक । अथ समर्थ तउ अभव्य दूर भव्य जि छई तीही रहई समाधिबोध दियउं । अथ इसउं कहिस जियोग्य हुयई ताही जि रहई दियई अयोग्य रहई न दि ई जि समाधि बोधि कारणु छह । इसउं एकांतवादी कहई, स्याद्वादवादी भगवंतु । तत्र-एक एक नय तणउ एकांति करी वाद् एकांतवादु । यथा-योग्यता ई जि हूंत काजु हुयइ । इसी परि सर्व नयमयता करी 25 स्याद्वाद रहई न योग्यता ई जि कारण एकांतिहिं किंतु योग्यता कारणु इसउं कहियइ । तथा च 'स्याद्वाद मुद्रा सामग्री वै जनका" इति । जिम घट निष्पत्ति विषइ माटी रहई योग्यता हूंतीही कुंभकार चक्र चीवर दवरक दंडादिक सहकारि कारण पुण हुयई तिम जीव रहई समाधि बाधि योग्यता हूंती विघ्नविनासकता भावि करी यक्षांबादिक देव पुण मेतार्यादिकहं जिम समाधि बोधिकारण हुई । इणि कारणि सम्यग्दृष्टि देव तणी प्रार्थना निरर्थक नहीं। 30 8627) अथ जहिं कारण लगी प्रतिक्रमणु कीजइ ति कारण कहइ । पडिसिद्धाणं करणे किच्चाणमकरणे य पडिक्कमणं । अस्सद्दहणे य तहा विवरीयपरूवणाए य॥ [९१०] प्रतिषिद्ध निवारित छई सम्यक्त्व तणा शंकादिक अतीचार अणुव्रतादिकहं तणा बंधादिक अतीचार तीहं तणइ करणि हूंतइ । कृत्य छई सामाइकादिक दिनकृत्य अथवा देवपूजा करणादिक नियम 8625) 1 Bh. omits. 2 Bh. omits. 8626) 1 Bh. कहिसिउ । 2 Bh. जनिका! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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