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________________ श्री तरुणप्रभाचार्यकृत २२५ 4 'गंगादिषु सप्ततिश्च चैत्यानी' ति । गंगा १, सिंधु २, रोहितांसा ३, रोहिता ४, हरिकांता ५, हरिसलिला ६, सीतोदा ७, सीता ८, नारिकांता ९, नरकांता १०, रूप्यकूला ११, सलिला १२, सुवन्नकूला १३, रक्तवती १४, इसां नामहं करी प्रसिद्ध चऊद महानदी जंबूद्वीप माहि छईं । धातुकखिंड पुष्करवर द्वीपार्द्ध माहि इसां ई जि नामहं अठ्ठावीस महानदी छई । सव्वइ मिलिया गंगादिक सत्तर महानदी हुई तहिं तणां छई प्रपातकुंड तहिं माहि पृथिवी विकार छई कमल । तहिं ऊपरि ऊपरि एकैक 5 चैत्यभावि करी गंगादिकहं महानदीयहं माहि सत्तरि चैत्य हुयई । स्थानक दशकस्थान्यपि ' समानि मानेन चेमानि' दिग्गजचत्वारि ईहां हूंता जि अनुक्रम करी दस स्थानक तणां चैत्य कहियां ति सगलाई मानि प्रमाणि करी समान छई ॥ २८ ॥ §618-620). ऊ जु समानु मानु कहिया । ' चत्वारिंशदि ' ति - चऊदसहं चियाल धणुह ऊंचपणि, एकु कोसु आया िलांबपणि, अर्द्धकोसु पिहुलपणि । ए दसहीं स्थानहं तणी चैत्यमाला देवगृह परंपरा 10 प्रमाणि करी छई ॥ २९ ॥ अथ नंदीश्वरे द्वि पंचाशत् इहां लगी जि के भूमिगत चैत्य कहियां तीहं तणी सर्व संख्या कहियइ | 'पंचशती' त्यादि । त्रिन्हि सहस्त्र पांच सई सतरहोत्तर संख्या करी भूमिगत चैत्य हुयई । अथ भूमिगत चैत्यबिंब संख्याकरणपूर्वक अर्चियां । 'द्वाविंशतिरि ' ति । चत्तारि लाख बावीस सहस्स वि सई असी बिंब । तिर्यग्लोक माहि माँ भक्तिभावि करी अर्चियां पूजियई । अथ ऊर्ध्वलोक चैत्यमानु नंदीश्वरचैत्य 16 समानता करी कहियइ । ' कल्पेषु जिनावासा' इति । सौधर्मादिकहं बारहीं कल्पहं देवलोक ' जिनावासा' जिनभवन | नंदीश्वरि द्वीपि जेवडां पूर्विहिं कहिया तेवडाई जि जिनावास छईं ॥ ३१ ॥ 1 (619) अथ देवलोक चैत्यसंख्या कहियइ | ‘ सप्तनवतिरि' ति—चउरासी' लाख सत्ताणवइ सहस्स त्रेवी से करी अधिक जिम पूर्विहिं व्यक्ति करी भणियां तिम सुरलोके ऊर्ध्वलोकि बारेई' देवलोके नवग्रीवेयके पांचे पंचुत्तरे चैत्य छदं । अथ तीहीं 20 जि चैत्यहं तणा जि छइ बिंब तीहं तणउं प्रमाणु कहियइ ॥ ३२ ॥ ' कोटीशतमि' ति - एकु कोडिसउ बावनकोडि चउराणंवइ लाख चउरासी सहस्स सातसई. साठि करी अधिकबिंब ऊर्ध्वलोकि सर्वसंख्या करी हुयई ॥ ३३ ॥ अथ त्रिभुवनचैत्यसंख्या कथनपूर्वकु वांदियहं । ' कोट्योष्टे' ति-आठ कोडि सतावन लाख 26 पाँचसई चियाल त्रिभुवन चैत्यावलि । त्रैलोक्यचैत्यपरंपरा सर्वसंख्या करी वांदउं ॥ ३४ ॥ (620) अथ प्रतिमास्वरूपु निरूपियइ । 'कनकमयी ' ति - शाश्वतजिनप्रतिमा तणी गात्रयष्टि कनकमयी जात्य सुवर्णमयी सहजि हिं.. छई, इसउं नहीं किणिहिं घडी । 'करचरणनखादिकापरेऽवयवा ' इति । 'आदि' शब्दइतर' बीजाई अवयव जाणिवा । ' रक्तादिक वर्णरत्नमया ' इति । आदि शब्दइतर ' कृष्णादिक वर्ण जि छई रत्न तन्मय जिसा हुयई तिसा सहज हिं' छइं । यथा कनकमयी गात्रयष्टि, लोहिताक्ष रत्नपरिसेक अंक, रत्नमय नख, 80 तपनीयमय पाणिपादतल, रिष्टरत्नमय रोमराजि, तपनीयमय नाभिचूचक, श्रीवत्स जिह्वा तालु तल, 618) 4 Bh. combines सलिला सुवन्नकूला and adds रक्ता as the fourteenth ; it may be more appropriate. It is a later marginal addition in Bh. 5 Bh. स्थान । §619 ) 1 Bh. चउराशी । 2 Bh. बारे । 8620 ) 1 Bh. drops words between आदिशब्दइतउ । 2 B. omits हि । घ. वा. २९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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