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________________ २२३ $618). श्री तरुणप्रभाचार्यकृत पूर्वापर समुद्रलग्नोभयप्रांतु चत्तारिसई जोयण समुच्चु रक्तरत्नमयु निषधु नाभि पर्वतु हरिवर्षक्षेत्र परभागवत छ । महाविदेहक्षेत्र परभागवत निषध समानु नीलमणिमयु नीलवंतु पर्वतु छ । महाहिमवंत समानु रम्यकक्षेत्र परभागवर्त्ती रुक्मी पर्वतु छइ । हिमवंत समानु ऐरण्यवतक्षेत्र परभागवर्त्ती शिषरी पर्वतु छइ । इति हिमवंत १, महाहिमवंत २, निषध ३, नीलवंत ४, रुक्मी ५, शिषरी ६, इसां नामहं छ वर्ष धर पर्वत जंबूद्वीप माहि बार धातुकी खंड माहि छई । बार पुष्करवर द्वीपार्द्ध माहि छई । एवं कारइ त्रीस वर्षधर पर्वत सर्व संख्या करी हुयई । तिहां एक एक चैत्यभावि करी वर्षनगहं वर्षधर पर्वतहं त्रीस चैत्य हुई । 'विंशतिरिभदंतकेषु तथे 'ति । एक एक मेरु पर्वत विदिशि वर्त्तमान गजदंताकार चत्तारि चत्तारि गजदंत पर्वत छ ! पंचमेरुप्रतिबद्ध वीस गजदंत पर्वत हुयहं । तिहां एक एक चैत्यभावि करी वीस चैत्य गजदंत पर्वतहं हुयई ॥ २१ ॥ ' चत्तारी ' ति-धातुकीखंड अनइ पुष्करवर द्वीपार्द्ध रहई द्विखंडीकरण हेतुक जिसा 'इषु' बाण हुई इसा सत्याभिधान चत्तारि इषुकार पर्वत छ । तिहां एक एक चैत्यभावि करी चत्तारि चैत्य छ । ' मनुजोत्तरे च चत्तारी ' ति मानुषक्षेत्र वलयाकारु छइ मानुषोत्तरु पर्वतु तिणि चउहुं दिशि एक एक चैत्यभावि करी चत्तारि चैत्य छ । 'मेरुष्वशीतिरेका' ईहां लगी जि के चैत्य कहियां तीहं सवहीं तणी संख्या बिसई अढारोत्तर चैत्य हुयई ति हउं 'नमामि' भावि करी वांदउं ॥ २२ ॥ 15 ' एतेषामी 'ति - ईहं बिहुं सई अढारोत्तरही तणउं प्रमाणु इसउं सिद्धांत माहि उक्तउं कहिउं । छत्रीसजोयण ऊंचपणि, पंचासजोयण लांबपणि, पंचवीसजोयण पिहुलपणि ॥ २३ ॥ अथ स्थानक दशक चैत्यसमानता निमित्तु कहिया । (618) 'दिग्गज चत्वारिंशदि 'त्यादि ॥ आर्या पांच ॥ एक एक मेरु प्रतिबद्ध भद्रशालवन वर्त्तमान गजसमान दिशि विदिशि' भावि करी आठ आठ १० दिशि विदिसि रहईं प्रभव उत्पत्ति हेतु दिग्गजपर्वत छ । ति सव्वइ मिलिया आठपंचउं चियालीस दिग्गज पर्वत हुई । तिहां एक एक चैत्यभावि करी चियालीस चैत्य हुयई ॥ १ ॥ 10 'सुमरे चूलासु पांच' पांच मेरुपर्वत संबंधिनी पांच चूला तिहां एक एक चैत्यभावि करी पांच चैत्य हुयई 'दीर्घेषु वैताढयेषु वे ' ति । दीर्घ वैताढ्य सतरिसउ यथा | साठु सउ विजयगतु भरतैरवतगत दस दस सव्वइ मिलिया सतरु सउ । तिहां तिहां एक चैत्यभावइतर सतरु सउ चैत्य हुयई 125 'जंबूतरावेकं ' ति उत्तरुकुरु माहि पृथिवीविकाररूपु जंबू इसइ नामि सुवर्णरत्नमउ वृक्षु छइ । जेह नइ नामि जंबूद्वीपु कहिया । तेह ऊपरि एकु चैत्यु छइ । तेह जंबू नइ परिवेषि पाखतियां अट्ठोत्तरु उ जंबू वृक्ष छइं । तीहं ऊपरि पुण एक एक चैत्यभावि करी अठोत्तर सउ चैत्य हुयई । तीहं जंबू बाहिरि परिवेषाकारु वनखंडु छइ । तेह वनखंड माहि दिशिविदिशि एकैकभावि करी आठ चैत्य छई । एवं कार एक जंबू परिवारि एक सउ सतरहोत्तरु सउ चैत्यहं तणउं छइ । 'शाल्मलिमुख्येषु निखिलमवसेयं ' ति 130 एवं इसी परि देवकुरु प्रभृतिकहं माहि शाल्मलिप्रमुख जंबू सरीखा नववृक्ष नवकुरु गत छई जिम उत्तरकुरु माहि ऐशानदिशि जंबूवृक्षु छइ तिम देवकुरु माहि नैऋतदिसि शाल्मली वृक्षु छइ इसी परि धातुकीखंड पुष्करवर द्वीपार्द्ध माहि बि बि मेरु प्रतिबद्ध कुरु छई । एवं आठ ए, बि पाछिलां, सव्वइ मिलिया इस कुरु हुई । तिहां एक एक वृक्षभावि करी आठ वृक्ष ति हुयई । तिहां पुण जंबूवृक्ष जिम सतरहोत्तरसउ सतरहोत्तरसउ चैत्य छई । एवं कारइ कुरू इसकि इगारसई सतर चैत्य छ । ४ ॥ २६॥ (618) 1 Bh. - दिसि । 2 Bh. omits. चैत्य । 3 B. Bh. निखिलमसेयं । Jain Education International For Private & Personal Use Only 35 www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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