SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१२ षडावश्यकबालावबोधवृत्ति [$590-92). ८४०-८४२ $590) दार्टीतु' भणइ एवं अट्ठविहं कम्मं रागदोस समज्जियं । आलोयंतो य निंदितो खिप्पं हणइ सु सावओ । [८४०] ' एवं ' इसी परि किसउ अथु! जिम सु बालकु विषमूर्च्छितु मंत्राक्षराथु अजाणतो हूंतउ मंत्राक्षर प्रभावइतउ निर्विषु इयउ तिम मुग्धजनु जदपिहिं प्रतिकमण सूत्राथु जाणइ नही तथापिहिं एकि के जीव इसा श्रद्धापरायण हुयई जि अजाणताई आपणपउ शुद्ध करइं । न पुण सव्वे । इणिहि जि कारणि अतिप्रसंगनिषेध निमित्त 'सु सावओ खिप्पं हणइ' न पुण श्रावकमात्रु इसउं कहिई। इसी परि दाटीत भावना करी हव गाथाक्षराथु लिखियइ। एवं अविहमिति स विष बालक निर्विष भवन जिम । श्री गौतमस्वामि श्रीसुधर्मस्वामि नाम श्रीगणधरदेव विरचित सलक्षण सूत्राक्षर महाप्रभाववशइतउ अष्टविधु ज्ञानावरणीयादिकु कर्मु · रागदोस समज्जियं' रागद्वेषहं करी उपाजिउं। दिन समइ अनइ रात्रि समइ गुरु आगइ आलोयतउ वचान करी प्रकासतउ। किसउ अथु। जिम बालकु कार्यु अकार्यु बोलतउ हूंतउ काई विमरसइ नहीं जु काई मन माहि हुयइ सु कहइ तिम जु पापु जिम कीधउं हुयइ सु पापु तिमहीं जि कहइ, गुरु आगइ प्रकाशइ। 15' कथनीयमिदमकथनीयमिदं' इसी परि विमासइ नहीं। तथा 'निंदंतो' आपणा आत्मा आगइ 'हा दुट्टकयं, हा दुटु चिंतियं अणुमयंपि हा 'दुटु' इत्यादिकि कमि करी निंदतउ शोचतउ। 'सु सावओ' सु श्रावकु प्रकृष्ट गुणविशिष्ट गृहस्थु न पुण नाम श्रावकमात्रु। प्रकृष्ट गुणविशिष्टु पुण सु जु षट्स्थान युक्तु हुयइ । छ स्थानक पुण ए कहियइं । यथा-- कृतव्रतकर्मा १, शीलवान २, गुणवान ३, ऋजुव्यवहारी ४, गुरुशुश्रूषाकरु ५, प्रवचनकुशलु ६ ॥ 20 तथा च भणितं कयवयकम्मो १ तह सीलवं २ च गुणवं ३ च उज्ज ववहारी ४ । गुरुसुस्सूसो ५ पवयणकुसलो ६ खलुभावसत्ति ॥ [८४१] क्षिषु शीघ्र हणइ निस्सारु करइ इति गाथाक्षरार्थः । 8591) अत्र अष्टविधु कर्म कहिउँ सु पुण कहिया पाखइ जाणियह नहीं तिणि कारण संक्षेपिहि 25 मुग्धजन जाणाविवा कर्मविचारु लिखियइ कीरइ जओ जिएणं मिच्छत्ताईहिं चउगइगएणं । तेणिह भन्नइ कम्मं अणाइयं तं पवाहेणं ॥ [८४२] देव मनुष्य तिर्यंच नरकगति लक्षण चत्तारि गति, तिहां वर्त्तमानि जीवि प्राणियइ मिथ्यात्वादिकहं, हेतुहं करी जिणि काराण कीजइ तिणि कारण । इह किसउ अर्यु ? जिनशासनि कर्मु कहियइ, सु पुण 30 बीजांकुरु जिम प्रवाहि करी अनादि किसउ अर्यु ? जिम बीज हूंतउ अंकुरु अंकुरु हूंतउं बीजु हुयइ इसी परि अनादि छइ, तिम पूर्व कर्म लगी संसारु' हुयइ संसार लगी की हुयइ। इसी परि अनादि कर्मु छइ। एहू जु अर्यु भणिउ 'अणाइयं तं पवाहेणं' । तेह कर्म नउ बंधु चतुर्विधु हुयइ । यथा 8592) 'पगइबंधो ठिइबंधो अणुभागबंधो पएसबंधो तत्थ पगइबंधो अट्ठविहो । तंजहा नाणावरणीयं १, दसणावरणीयं २, वेयणीयं ३, मोहणीयं ४, आउयं ५, नामं ६, गोयं ७ 35 अंतराईयं ८, मूलभेया इमे, एसिं उत्तर भेया। तंजहा- नाणावरणीयं पंचविहं- तंजहा $590) 1 i,e, दृष्टांत । 2 B. - विवज्जियं। 3 i. e. निंदतो | Bh. 4 श्रद्धानपरायण. 5 Bh, सुषाकर। 8591) 1 Bh, adds, in the margin, प्रबल | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy