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________________ 10 3588-89) ८३९] श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत सम्यग्दृष्टि श्रावकि जु अल्पु पापु कर्म बांधउं सु प्रतिक्रमणि छ विहावश्यकि करी सहितु स प्रतिक्रमणु ॥ तथा ' हा दुटु कयं हा दुदु चिंतियं अणुमयपि हा दुटु' इत्यादिकु पाप समाचरणानंतरु जु अनुतापु परितापु कहियइ तिणि करी सहितु स परियावं सपरितापु कहियइ । तथा गुरूपदिष्ट प्रायश्चित्त समाचरण । लक्षणु छइ उत्तरगुणु तिणि करी सहितु स उत्तरगुणु हूंतउं सु श्रावकु 'खिप्पं ' किस अथु ? शीघ्र विहल उपसमावइ । एह अर्थ विषइ उदाहरणु कहइ 'वाहिव्व सुसिक्खिओ विज्जो' जिम सुशिक्षितु वैद्यु व्याधि उपसमावइ तिम सुखिहिं श्रावकु पापु उपशमावइ । 'तंपि हु' ईहां 'हु' शब्द एव शब्द तणइ अर्थि छइ । निःप्रतापु पापु करई' ही जि इसउं अर्थे । 3588) ईहीं जि अर्थ विषइ बीजउ दृष्टांतु कहइ जहा विसं कुटुगयं मंतमूलविसारया । विज्जा हणंति मंतेहिं तो तं हवइ निविसं ॥ ति' [८३९] जिम मंत्रमूल विशारद वैद्य मंत्रहं करी विसु कोष्ठगतु शरीरगतु हणइ । 'तो तंहवइ निविसं ति। 'तो' तउ पाछइ 'तं' सु विसु 'हवइ' हुयइ किसुं हुयइ ? 'निविसं' अमृतरूपं । अयमभिप्रायः। जेह पात्र रहई विषु कोष्ठगतु काय संक्रांत हूयउं हुयइ सु पात्रु विषवेदना मूर्छितु हूंतउं तीहं मंत्राक्षर नउ अर्थ जदपिहिं जाणइ नहीं तथापिहिं 'अचिंत्यो मणिमंत्रौषधीनां प्रभाव' इणि कारणि अक्षरमात्र श्रवणिहिं 15 विषमूर्खालहरीभंग लक्षणु गुणु तेह रहई संपजइ। $589) एह अर्थ विषइ डोकरि एक नई उदाहरणु कहियइ । तथाहि ग्रामि एकि अतिदरिद्रता करी दुक्खित डोकरि एक हूंती। हंस इसई नामि तेह नइ दीकिरउ एकु हूंतउ । सु आजीविका कारणि ग्रामलोक तणां वाछरु चारतु। अनेरइ दिनि संध्यासमह उद्यान वन हूंतउ वाछरू ले आवतउ हूंतउ सु सपि डसिउ । मूछी आवी । तिहां ई जि विषवेगसंगत 20 हूंतउ हेठउ ढलिउ । जिम काष्टु निश्चेष्टु हुयइ तिम थाई महीपीठि पडिउ । किणिहिं एकि ग्राम माहि आवी करी डोकरी आगइ कहिडं। "ताहरउ दीकिरउ सर्पि डलिउ । बाहिरि अचेतनु थाई पडिउ छ । तउ पाछइ स' डोकरी तेतीही जि वार मंत्र तंत्र यंत्र पंडित मेली करी रोयती हूंती दीकिरा कन्हइ आवी। मांत्रिक तांत्रिकादिक सु बालक मृतकु इस जाणी करी जिम गया हूंता तिमहीं जि पाछा आविय डोकरी पुण स एकली य जि शोकशंकु-संकीलितवित्त हूंती तिहां रही। पुत्र तणइ कर्णमूलि होईकरी जिम दिगंगना रहई पुण रुदनु आवइ तिम करुणस्वरि उच्चैस्वरि "हा' पुत्र ! हंस! हंस!" इसी परिअश्रांत स्वांत बोलावती हूंती किणिहिं पकि महा संतापितांग हूंती सकल रात्रि अतिक्रमावइ । “सुप्तवच्छ हंस! हंस! ऊठि" इसी परि पुत्र आगइ भणती तेह डोकरि रहई जिम एकि' गमइ पूर्वदिसिमुख शोभावतं सु हंसु सहस्रकरु ऊगिउ, तिम तेह नउ पुत्रु बीजइ गमइ हंसु पुण ऊठिउ। तउ पाछइ कमलवण जिम तिणि समइ विहसइंतिम तेह डोकरि तणां नयण पुण विहसियां। सु बालकु जीविउ इसउं सांभली करी ग्राम-30 लोकु सगलो धाई तिहां आविउ । प्रभात" समइ मांत्रिक तांत्रिकादिक पुण तिहां आविया। मन माहि आश्चर्यु करता हूंता तेह डोकरि आगइ इस कहई “ त एह रहा किसुं' कीधउं?" वृद्धा भणइ, “मई हंस ! हंस ! इसी परि एह नइ कर्णमूलि जपती रोयती थिकी रात्रि नीगमी।” गारुडमंत्र माहि हंस हंस ए बीजाक्षर छई, 'तीहं नइ प्रभावि विषु उपशामिउ, इसउँ गारुडिके जाणि। तउ पाछइ जिम तिणि डोकरी मंत्राथु अजाणतीही पुत्रु अचेतनु विषाक्रांतु सचेतनु निर्विषु कीधउ । अक्षरहीं जि तणा प्रभावइतउ । 35 8587) 1 B. Bh. have करहीं जि । $588) 1 Bh. omits 2 Bh. किसउं $589) 1p दुक्खिता। 2 P. हंसु । 3 Bh. P. चारतउ । 4 p. तिमि । 5p. थ्याई। 6 p. अचेतना। 7 p. सा18 p. मांत्रिकादिक। 9P. हो। 10 P. एक । 11 P. प्रभात। 12P. मांत्रिका । 13 P. puts it after तिहां । 14 Bh. किस। 15 Bh. कर्णिण-1 16 P. repeats. 17 B. omits. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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