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________________ xxiii _सूरि की वृद्धावस्था का प्रभाव बढ़ रहा था। उनकी शारीरिक स्थिति क्षीण हो चली थी तब वे अपना अन्तिम समय नजदीक जानकर से सं. १३८८ में देवराजपुर आ गये। वहाँ के श्रावक जनों ने उनका बड़ा प्रवेशोत्सव किया। उस समय उनकी सेवा में जो यति, मुनि आदि विद्यमान थे उनमें मुख्य श्री तरुणप्रभ गणि और लब्धिनिदान गणि थे। उस वर्ष के मार्गशीर्ष शुक्ल दसवीं के दिन एक बड़ा महोत्सव मनाया गया और उस महोत्सव में पं. तरुणकीति गणि को आचार्य पद प्रदान किया गया और तरुणप्रभाचार्य ऐसा नाम उद्घोषित किया। पं. लब्धिनिदान गणिको महोपाध्याय के पद पर अभिषिक्त किया। उसी प्रसंग पर दो क्षुल्लक और दो क्षुल्लिकाओं का भी दीक्षोत्सव हुआ। उन क्षुल्लकों के नाम जयप्रिय मुनि और पुण्यप्रिय मुनि रखे गये। क्षुल्लिकाओं के नाम जयश्री और धर्मश्री थे। उस प्रसंग पर दस श्राविकाओं ने धर्ममालाएँ धारण की तथा अनेक श्रावक, श्राविकाओं ने कई प्रकार के व्रत ग्रहण किये। वृहद् गुर्वावली में इस प्रसंग का उल्लेख करते हुए तरुणकीति गणि के लिये निम्नलिखित गुणवर्णनात्मक पंक्ति लिखी गई है : 'तस्मिन् महोत्सवे गाम्भीर्यौदार्य, धैर्य स्थैर्यार्जव विद्वत्व कवित्व, वाग्मित्व, सत्त्व, सौविहित्य ज्ञान दर्शन चारित्र विशद षट् त्रिसत्सूरि गुण गण मणि विपणि नां. पं. तरुणकीति गणिनाम् ।'इस पंक्तिगत उल्लेख से तरुणप्रभाचार्य को विशिष्ट गुणवत्ता का आभास मिलता है । उसके बाद आनेवाला चातुर्मास जिनकुशल सूरि ने उसी देवराजपुर में व्यतीत किया और श्री तरुणप्रभाचार्य तथा लब्धिनिदान उपाध्याय को सम्मत्ति तर्क और स्यादवाद रत्नाकर जैसे महान् जैन तर्क शास्त्रों का गंभीर अध्ययन कराया फिर माघ शुक्ल में गाढ़ ज्वर और श्वास आदि व्याधि प्रकोप बढ़ जाने पर तरुणप्रभाचार्य और लब्धिनिदान उपाध्याय को आपने आदेश दिया कि मेरी मृत्यु के बाद मेरे पट्ट पर पद्ममूर्ति नामक १५ वर्षीय बाल मुनि की पद स्थापना की जाय । यह पद्ममूर्ति मुनि आचार्य श्री जिनकुशल सूरि के स्वहस्त दीक्षित शिष्य थे। ये पद्ममूर्ति लक्ष्मीधर सेठ के पुत्र साधुराज आम्बा के पुत्ररत्न थे। इनकी माता का नाम कीका था। इनकी दीक्षा सं. १३८४ में इसी देवराजपुर में हुई। इनके पिता साधुराज सा. आम्बा बड़े धनिक व्यक्ति थे। उस साल के माघ सुदी पंचमी के दिन बड़ा भारी प्रतिष्ठा महोत्सव हुआ, जिसमें सिंध के कई स्थानों में मूर्तियाँ बिराजमान करने की दृष्टि से अनेक प्रतिमाएँ वहाँ लाई गई और जिनकुशल सूरि के कर कमलों द्वारा वह सारा प्रतिष्ठा कार्य सुसम्पन्न हुआ। उसी महोत्सव पर साधुराज आम्बा के पुत्र-रत्न को भी दीक्षा दी गई और उसका नाम पद्ममूर्ति रखा गया। उनके साथ आठ अन्य क्षुल्लकों को भी दीक्षित किया गया। इन क्षुल्लकों के नाम इस प्रकार हैं :-भावमूर्ति, मोदमूर्ति, उदयमूर्ति, विजयमूर्ति, हेममूर्ति, भद्रमूर्ति, मेवमूर्ति और हर्षमूर्ति । इनके साथ कुलधर्मा, विनयधर्मा, शीलधर्मा नामक तीन क्षुल्लिकाएँ भी दीक्षित हुई। श्री जिनकुशल सूरि के हाथों से सिंध में यह सब से बड़ा महोत्सव सम्पन्न हुआ। संभव है पद्ममूर्ति बालसाधु जो उस समय श्री जिनकुशल सूरि की सेवा में विद्यमान थे। एक तो वे बहुत धनिक गृहस्थ के पुत्र थे और सौभाग्यादि गुणों से भी भाग्यशाली दिखाई देते थे। इसलिये सूरिजीने उनको अपना गादीधर गच्छ नायक बनाना योग्य समझा और अपनी यह इच्छा उन्होंने तरुणप्रभाचार्य जैसे गच्छ के बहुत बड़े मुनि के सम्मुख प्रकट की। ___ इस के बाद संवत १३९० के फाल्गुन मास की कृष्ण पंचमी की रात्रि को जिनकुशल' सूरि का स्वर्गवास हुआ। दूसरे दिन बहुत विस्तार के साथ उनका अग्निसंकार किया गया। इस प्रसंग का विस्तृत वर्णन वृहद्गुर्वावली में दिया गया है।। इस के बाद संवत् १३९० के जेठ महीने की शुक्ल' छठ सोमवार के दिन श्री तरुणप्रभाचार्य ने जयधर्म महोपाध्याय तथा लब्धिनिधान महोपाध्याय आदि तीस मुनि तथा अनेक साध्वी मंडल के साथ श्री जिनकुशल सूरि की अन्तिम शिक्षा के अनुसार उनके पट्टपर पद्ममूर्ति क्षुल्लक की पदस्थापना कर जिनपद्म सूरि के नाम से उद्घोषित किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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