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________________ xxiv उस समय नूतन गच्छ नायक जिनपद्मसूरि की अवस्था पन्द्रह वर्ष की थी। अतः गच्छानुयायी संघ का साराभार श्री तरुणप्रभाचार्य संभालते थे। दुर्भाग्य से जिनपद्मसूरि का स्वर्गवास (दस, ग्यारह वर्ष बाद) संवत् १४०० में हो गया। फिर उनके पट्ट पर तरुणप्रभसूरिने अपने सहाध्यायी उपाध्याय पद धारक लब्धीनिधानगणि को सूरि मंत्र की विद्या देकर जिनपद्मसूरि के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया और जिनलब्धि सूरि नाम से उद्घोषित किया। परन्तु १४०६ में जिनलब्धि सूरि का भी नागोर में स्वर्गवास हो गया। फिर उनके पट्ट पर जैसलमेर में जिनचन्द्र सूरि (तृतीय) की पद स्थापना की। परन्तु उनका भी संवत १४१५ में स्वर्गवास हो गया। तब उनके पट्ट पर खम्भात में श्री जिनकुशल सरि के ही अन्यतम शिष्य श्री सोमप्रभ को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया और जिनोदय सूरि के नाम से उद्घोषित किया। इन सोमप्रभ को संवत १३८२ में भीमपल्ली (भीलडी गाँव में) श्रीकुशल सूरि ने दीक्षा दी थी। इनके साथ विनयप्रभ, मतिप्रभ और हरिप्रभ नामक बालसाधुओं को दीक्षित किया। इसी तरह कमलश्री ललितश्री नामसे दो बालिकाओं को भी दीक्षा दी। इस प्रकार श्री जिनकुशल सूरि के स्वर्गवास के बाद उस गच्छ की परंपरा में जिनोदय सूरि प्रभावशाली आचार्य हुए । बीच में जो उक्त प्रकार के पच्चीस वर्ष के अन्तरमे तीन आचार्य गद्दी पर बैठे; परन्तु थोड़े-थोड़े वर्षों के बाद उनका स्वर्गवास हो जाने से और एक दो आचार्य तो अल्पकालीन जीवन ही पा सके थे। इसलिये उन २५ वर्षों की पाव शताब्दि उक्त परंपरा के लिये प्रभावशून्य से व्यतीत हुई। इन २५ वर्षों में तरुणप्रभाचार्य ही इस परंपरा के एक सर्वाधिक प्रभावशाली और गच्छ के विशिष्ट नायक रूप में विद्यमान रहे । तरुणप्रभाचार्य बहुत अधिक शास्त्र ज्ञाता थे। यह तो उनकी प्रस्तुत 'षड़ावश्यक बालावबोध वत्ति' के अवलोकन से ज्ञात होता है। उन्होंने अनेक जैन ग्रन्थों का गहन अध्ययय किया था। पट्टावली के उल्लेखानुसार स्वयं श्री जिनकुशल सूरि के पास स्यादवाद रत्नाकर आदि महान तर्क ग्रन्थों का अध्ययन किया था। जिनकुशल सूरि ने 'चैत्यवंदन कुलक' नामक एक प्राकृत प्रकरण ग्रन्थ पर बहुत विस्तृत संस्कृत व्याख्या लिखी थी। जिसके संशोधन में तरुणप्रभ सूरि (उस समय इनका मूल दीक्षित नाम तरुणकीति था) ने अपना सहयोग दिया था। इसलिये श्रीकुशल सूरि ने उनकी विद्वता की प्रशंसा करते हुए इनको 'विद्वत्जन चूड़ामणि' के सम्मान वाचक शब्द से उल्लिखित किया है। इनकी ऐसी विशिष्ट विद्वता और प्रभावशीलता के गुण को लक्ष्य कर श्री जिनकुशल सूरि ने अपनी अंतिम अवस्था में इनको उपर्युक्त लेखानुसार आचार्य पद प्रदान किया था और इसी गुण के कारण वे श्रीकुशल सूरि के बाद २५-३० वर्ष तक इनकी गच्छ परंपरा में विशेष रूप से सम्माननीय बन रहे थे। तरुणप्रभाचार्य ने प्रस्तुत 'षडावश्यक बालावबोध वृत्ति' के अतिरिक्त अन्य भी किसी ग्रन्थ की रचना की हो-ऐसा ज्ञात नहीं होता। क्योंकि वैसी कोई ग्रन्थ रचना की होती तो वह बीकानेर, जैसलमेर, पाटण आदि के भंडारों में अवश्य उपलब्ध होती। हाँ, उनकी कुछ छोटी-छोटी स्तुति, स्तोत्र, स्तवन आदि रचनाएँ उपलब्ध होती है-जिनका उल्लेख श्री अगरचंदजी नाहटाने अपने 'आचार्य प्रवर तरुणप्रभ सूरि' नामक संशोधनात्मक लेख में किया है। (देखें शोध पत्रिका भाग ६ अंक में) तरुणप्रभ सुरि का अधिकतर विचरण गुजरात, सौराष्ट्र और राजस्थान तथा सिन्ध प्रदेश में हुआ जान पड़ता है। प्रख्यात ग्रन्थकार जिनप्रभ सूरि की तरह उन्होंने विविध देशों में भ्रमण किया हो ऐसा ज्ञात नहीं होता। इन्होंने छोटी छोटी स्तुति, स्तोत्रादिक जो रचनाएँ की हैं। उनमें "स्तम्भन पार्श्वनाथ स्तोत्र, अर्बुदाचल आदिनाथ स्तोत्र,' देवराजपुरमंडन आदि जिन स्तवन', जेसलमेर पार्श्वनाथ स्तवन', 'जीरापल्ली पार्श्वनाथ विज्ञप्ति', 'विमलाचल आदिदेव स्तवन', Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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