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आकान्त होकर वहाँ की जनता अत्यन्त त्रस्त और भयभीत हो रही थी, तब वहाँ जाकर जिनचन्द्र सूरि ने अपने विद्याबल, तपोबल और विशिष्ट वाक्चातुरी द्वारा लोगों को शांति प्रदान करने का यथेष्ट प्रयत्न किया। वहीं पर शांतिकारक धर्म कार्य करते हुए शारीरिक अवस्था क्षीण हो जाने के कारण श्री जिनचन्द्र सूरि ने अपने विद्वान शिष्य श्री राजचन्द्र पंडित को अपने पास बुलाने के लिये दो विश्वस्त श्रावकों को गुजरात के पाटण शहर भेजे । जहाँ पंडित राजचन्द्र महोपाध्याय विवेक समुद्रगणि की सेवा में रह रहे थे। इससे ज्ञात होता है कि राजेन्द्रचन्द्र, श्री जिनचन्द्र सूरि के एक बहुत ही विशिष्ट कोटि के शिष्यों में से थे। इसलिये इनको अपने अन्तिम समय में पास में बुलाया और वहीं पर इनको आचार्य पद प्रदान कर राजेन्द्रचन्द्राचार्य नाम से प्रतिष्ठित किया। खरतर गच्छ वृहद गुर्वावली में इनके विषय में बहुत से उल्लेख आये हैं। श्री जिनचन्द्र सूरि का स्वर्गवास हो जाने पर उनके मुख्य पद पर सुप्रसिद्ध आचार्य जिनकुशल सूरि को प्रतिष्ठित करने में इनका बहुत बड़ा हाथ रहा है।
ये उक्त प्रकार से बहुत बड़े शास्त्रज्ञ थे। इसलिये तरुणप्रभ ने कुछ कुछ विशेष विद्याएँ इनसे भी प्राप्त की थी।
संवत् १३७६ में जिनचन्द्र सूरि का स्वर्गवास हो गया। उनके पट्टपर उन्हीं की इच्छा एवं आज्ञानुसार राजेन्द्रचन्द्राचार्य के विशिष्ट प्रयत्न से पाटण में जिनकुशल सूरि का संवत् १३७७ के ज्येष्ठ कृष्ण ११ के दिन बड़े समारोह के साथ पट्टाभिषेक हुआ।
इन जिनकुशल सूरि का जन्म संवत् १३३७ में मारवाड़ के समियाणा नामक गाँव में हुआ था और ९ वर्ष की वय में अर्थात् संवत् १३४६ में इनको दीक्षा दी गई थी। यों ये जिनचन्द्र सूरि के भाई के पुत्र थे और इस प्रकार उनके साथ इनका कौटुम्बिक सम्बन्ध भी था। इनका उस समय कुशलकीति नाम रखा गया। इनके साथ देववल्लभ, चारित्रतिलक नामक साधुओं की दीक्षा हुई थी, तथा रत्नश्री नामक एक साध्वी की भी दीक्षा हुई। उस समय सा. क्षेम सिंह भ्राता बाहड़ द्वारा कई जिन मूर्तियों की प्रतिष्ठा का महोत्सव किया गया, उस समय वहाँ पर चाहमान (चह्वान) वंशीय महाराजा सोमेश्वर का शासन काल चल रहा था और महाराजा ने इन महोत्सवों में बहुत उत्साहपूर्वक योगदान दिया था। संवत् १३७५ में मारवाड़ के नागोर नगर में गच्छ नामक आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरिने इनको सर्व विद्या कुशल जानकर तथा अनेक शिष्यों से परिवृत्त बहुत लब्धि संपन्न समझ कर एवं भविष्य में अपनी परंपरा की कीर्ति को बढ़ानेवाले मानकर पंडित राजकुशलकीति गणि को वाचनाचार्य पद प्रदान किया। उसी समय धर्ममाला गणिनी और पुष्पसुन्दर गणिनी को प्रवर्तिनी पद प्रदान किया। इस समय मंत्री दलवंशीय ठक्कुर विजयसिंह ठ. सेलू सा. रुदा प्रमुख नाना ग्रामों के अनेक धनिक श्रावकजन एकत्रित हुए थे और बहुत बड़ा महोत्सव मनाया गया था। फिर ठ. विजयसिंह, ठ.सेढू, ठ. अचल प्रमुख भक्त श्रावकों ने एकत्र होकर गच्छ नायक आचार्य के साथ बड़े ठाठ से फलोद स्थित पार्श्वनाथ भगवान की यात्रा की।
सं. १३८४ में श्री जिनकुशल सूरि जब जेसलमेर थे तब सिंध के निवासी अनेक धनिक और प्रभावशाली जनों ने आचार्यजी को सिंध में पधारने की बहुत आग्रहपूर्वक विनंति की। तब उनकी विज्ञप्ति स्वीकार कर आचार्यजी ने सिंध के लोगों को धर्मोपदेश देकर उनकी कल्याण कामना पूर्ण करने की दृष्टि से उस तरफ विहार किया।
सिंध में उस समय देवराजपुर (देरावर) नामक नगर एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था । वहाँ पर अनेक जैन कुटुम्ब बसते थे। जो बहुत कुछ सम्पत्तिशाली और राज्यसत्ता के साथ भी विशिष्ट सम्बन्ध रखते थे। जिनकुशल सूरि ने उस नगर को अपना केन्द्र स्थान बनाकर उसके आसपास के उच्च नगर, राणुककोट, बहीरामपुर, मलिकपूर, खोजवाहन, क्यासपुर आदि स्थानों में यथा समय परिभ्रमण करते थे और वहाँ के जनों को धर्मोपदेश द्वारा धार्मिक कार्यों में प्रेरित करते रहते थे। उनके विद्या तप एवं योगबल के प्रभाव से उस प्रदेश के मुसलमान शासक भी उनके प्रति अपना आदरभाव प्रकट करते थे। जिससे वहाँ की जनता को बहुत कुछ आश्वासन मिलता रहता था।
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