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नामक ग्रन्थ में इन आचार्य के कार्यकाल का काफी प्रभाविक वर्णन दिया हुआ है। जिसमें जगह जगह पर उन उन स्थानों में होनेवाले ऐसे दुःखद प्रसंगों का संकेत रूप में उल्लेख मिलता है। इन्हीं आचार्य ने प्रस्तुत ग्रन्थकर्ता तरुणप्रभ सूरि को 'मूलनामतरुणकीति' को १३६८ में भीमपल्ली (भीलड़िया) नामक नगर में दीक्षा दी थी। उस समय इनका नाम तरुणकीति ऐसा रखा गया था। इनके साथ तेजकीर्ति नामक एक अन्य बालक को दीक्षित किया था तथा व्रतधर्मा और दृढ़धर्मा नामक दो साध्वियों को भी नई दीक्षा दी और उसी समय प्रतापकीति और एक अन्य क्षुल्लक मुनि की उप स्थापना विधि सम्पन्न हुई। उसी समय ठक्कुर हांसिल के पुत्र रत्न ठक्कुर दहेड़ के छोटे भाई ठक्कुर धीरदेव की सुपुत्री जिसकी श्री जिनचन्द्रसूरि ने पहले अपने हस्त से दीक्षा दी थी और जिसका नाम रत्नमंजरी गणिनी था, उसको महत्तरा पद प्रदान किया और श्री जर्याद्ध महत्तरा के नाम से घोषित किया और प्रियदर्शना नाम गणिनी को प्रवृत्तिनी पद प्रदान किया। इस अवसर पर भीमपल्ली के श्रावक समुदायने बहुत बड़ा उत्सव किया। (देखें स्व. ग. गुर्वावली पृष्ठ ६३-६४)
तरुणकीर्ति के लिये यहाँ 'क्षुल्लक' ऐसे शब्द का प्रयोग किया है। जिससे ज्ञात होता है कि उनकी उम्र उस समय आठ-दस वर्ष जितनी छोटी होगी। पट्टावली में ऐसे बाल वय में दीक्षित होनेवाले बालक-बालिकाओं के लिये क्षुल्लक और क्षुल्लिका विशेषण का प्रयोग किया गया है। प्रायः जैन ग्रन्थों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि आठ दस वर्ष से लेकर १२ वर्ष की शिशुवय ये ऐसे अनेक दीक्षित हुए हैं और बाद में वे बड़ें विद्वान चारित्रिक और प्रभावशाली व्यक्ति बने हैं। तरुणकीर्ति भी इन्ही में से एक बालवय में दीक्षित होनेवाले प्रथम क्षुल्लक मुनि बने।
गुरुवर्य श्री जिनचन्द्र सुरि ने इनको विद्याध्ययन करने के निमित्त अपने एक अन्यत्तम विद्वान शिष्य यश कीति नामक गणि को सौंप दिया। तरुणप्रभ ने लिखा है कि पिता से भी अधिक वात्सल्यभाव इनका मुझ पर था और मुझे इन्होंने पहले पहले विद्याध्ययन कराया।
'पितृभ्योऽप्यति वात्सल्यं येनाधायितरां मयि । यशः कीर्ति गणिर्मा
सपूर्व विद्यामभाणयत् । इन यशःकीर्ति गणिको संवत १३४९ के मार्गशीर्ष वदी २ को पालनपुर नगर में श्री जिनचन्द्रसूरि ने दीक्षा दी थी। इसके बाद तरुणप्रभ ने श्री राजेन्द्रचन्द्र सूरि से भी कुछ कुछ विद्याओं का अध्ययन किया ।
'राजेन्द्र चन्द्र सूरिन्द्र विद्या काचन काचन ।' ये राजेन्द्रचन्द्राचार्य भी श्री जिनचन्द्रसूरि के स्वहस्त दीक्षित शिष्य थे। इनकी दीक्षा संवत १३४६ के जेठ विद ७ के दिन उसी भीमपल्ली नगर में हुई थी। इनके साथ नरचन्द, मुनिचन्द, पूण्यचन्द, नामक साधुओं की तथा मुक्तिलक्ष्मी और मुक्तिश्री नामक दो साध्वियों की दीक्षा बडे उत्साहपूर्वक हुई। __इसके बाद संवत १३४७ में मार्गशीर्ष सुद ६ को राजचन्द्रादि नूतन दीक्षित साध साध्वियों का उपस्थापना महोत्सव मनाया गया। इन राजेन्द्रचन्द्र ने महोपाध्याय विवेकसमद्र के पास बहत वर्ष रहकर लक्षण, तर्क, साहित्य, अलंकार, ज्यौतिष आदि अनेक शास्त्रों का गहन अध्ययन किया था। अपने समुदाय में ये स्वसमय पर समय विदित तत्त्वों के बड़े ज्ञाता समझे जाते थे और इसलिये इनके गुरु इनको पंडितराज कहकर संबोधित किया करते थे।
संवत् १३७३ में म्लेच्छ विधर्मियों के दुष्ट आक्रमणों के कारण सिन्धु मण्डल निवासी श्रावक वर्ग जब बहुत उद्विग्न और व्याकुल हो रहा था और जब वहाँ के कुछ अग्रगण्य श्रावक जैसे कि भोजदेव, सा. लखण, सा. हरिपाल आदि उच्चापुरी नगर के प्रमुख श्रावक नागपुर (नागोर) में आये ऊपर उनकी प्रार्थनानुसार भयंकर ग्रीष्म ऋतु में भी तथा मुसलमानों द्वारा सारा सिन्ध मंडल
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