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इन्होंने विचरण किया। सं. १२२२ में तीर्थयात्रा करते हुए अपने भक्त-धनिक श्रावकों के साथ इनका आगमन दिल्ली नगर में हुआ (दिल्ली का नाम उस समय योगीनीपुर भी प्रसिद्ध था)। दिल्ली में उस समय तोमरबंशीय राजा मदनपाल का राज्यशासन चल रहा था। दिल्ली में उस समय राज्यमान्य और जन सम्मान्य अनेक जैन श्रावकों का खूब प्रभुत्व था। मंत्री दलवंशीय के नाम से प्रसिद्ध प्राप्त श्रावकों के कई धनिक कुटुम्ब वहाँ बसते थे। इन श्रावकों ने विद्या सिद्ध और बुद्धि निधान आचार्य जिनचन्द्र सूरि का बहुत बड़े ठाठ के साथ प्रवेशोत्सव किया। जिसे जान सुन कर महाराज मदनपाल भी बड़ा प्रभावित हुआ और उसने बहुमानपूर्वक जैन आचार्य को अपने चरण कमल से राज प्रासाद को पवित्र करने के लिये आमंत्रित किया। राजा ने बहुत भक्तिपूर्वक इनका सत्कार किया और अन्यन्त विनय भाव से धर्मोपदेश श्रवण किया। दैवगति से इनका उसी वर्ष दिल्ली में ही स्वर्गवास हो गया।
इस तरह केवल २५, २६ वर्ष जितनी अल्पायु में ही ये दैवगति को प्राप्त हुए; परन्तु इनकी इस प्रकार की अल्पायु में ही बड़ी प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा हई। इनकी योग विद्या सिद्ध अनेक चमत्कारिक घटनाएँ खरतर गच्छ की पट्टावलियों में उल्लिखित मिलती हैं। दिल्ली के पास महरोली नामक स्थान में जहाँ इनके विभूतिपूर्ण शरीर का अग्निसंस्कार हुआ था वहाँ पर सुप्रसिद्ध दादावाड़ी नामक एक पूजनीय स्थान बना हुआ है, जहाँ पर आज भी सैकड़ों भक्तजन उस भूमि के दर्शन वन्दन करने जाते रहते हैं।
इन्हीं प्रथम जिनचन्द्र सूरि की पट्ट परंपरा में द्वितीय जिनचन्द्रसूरि हुए जो प्रस्तुत ग्रन्थकर्ता के दीक्षागुरु थे। ये जिनचन्द्र सूरि भी प्रथम जिनचंद्र सूरि के समान ही बहुत प्रभावशाली और सम्मान प्राप्त आचार्य हुए। इनकी आचार्य पदस्थापना संवत १३४१ में इनके गुरु आचार्य जिनप्रबोध सूरि ने स्वयं की और संवत १३७६ में इनका स्वर्गवास हुआ। इस प्रकार प्रायः ३५ वर्ष जितने इनके आचार्य काल में खरतरगच्छ की मुख्य परंपरा के अनुयायी समुदाय में इनके द्वारा अनेक धार्मिक महोत्सव सम्पन्न हुए। इन्होंने अपने आचार्यकाल में सौराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, सपादलक्ष एवं सिंध प्रदेश में कई बार परिभ्रमण किया और वहाँ के निवासी अपने भक्तजनों में धर्मोपदेश द्वारा धार्मिक संस्कारों की खूब वृद्धि की अनेक तीर्थयात्राएँ की गई। इसके लिये बड़े बड़े संघ निकाले गये अनेक स्थानों में नये जिन मंदिर बनाये गये और उनमें सैकड़ों जिन मूर्तियाँ स्थापित की गई। इसी तरह अनेक श्रावक श्राविकाओं ने आत्म कल्याण का व्रत ग्रहण किये तथा तपस्या आदि के उद्यापन, मालारोपण आदि विविध प्रकार के धार्मिक कार्य सम्पन्न हुए।
- इन जिनचन्द्र सूरि के समय में गुजरात, सौराष्ट्र, मारवाड़, दिल्ली, हरियाणा और सिन्ध के प्रदेशों में भयंकर राजनैतिक उथल-पुथल हुई। यह समय भारत के राजकीय इतिहास में बहुत ही दुःखदायक एवं प्रलयकारी परिस्थिति का घटक रहा था। इन्हीं वर्षों में गुजरात के स्मृद्धिशाली अणहिलपुर, पाटण का विध्वंस हुआ। उसकी अपार स्मृद्धि का विनाश हुआ। सौराष्ट्र में शत्रुजय, गिरनार, सोमनाथ तथा द्वारका जैसे भारत विख्यात तीर्थस्थान नष्ट भ्रष्ट हुए। जालोर चित्तौड़ और रणथम्मोर जैसे हिन्दूजाति के महान् संरक्षक गिने जानेवाले दुर्ग ध्वस्त हुए। गुजरात का सौली की राजवंश, मालवे का परमार राजवंश, मेवाड़ का गुहिलीत राजवंश तथा जालोर और रणथम्मोर का चौहान जैसा महान् पराक्रमी राजवंश स्थानभ्रष्ट और सत्ताहीन बनें। इसके कारण सारा भारत भयाक्रान्त हो रहा था। सर्वत्र विधर्मी-लुटेरों द्वारा भयंकर लूटमार मची हुई थी। जनता का सर्वस्व खोसा जाता था। हिन्दू देवी-देवताओं के भव्य मंदिर खंडहर बन रहे थे। देवमूर्तियाँ तोड़ी फोड़ी जाकर मस्जिद और मकबरों की दीवालों में चुनी जा रही थी। हजारों स्त्री-पुरुष पकड़ पकड़ कर कैदी बनाये जा रहे थे और हज़ारों ही तलवार की धार से कतल किये जा रहे थे । एक प्रकार से भारत के मध्यकालीन इतिहास का सबसे बड़ा संकट मय और विपत्तिजनक वह समय था।
जिनचन्द्र सूरि उस समय के प्रत्यक्षदर्शी एवं अनुभवी आचार्य थे। खरतर गच्छ वृहद गुर्वावली
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