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संस्कृत भाषा में न होकर बाल जनोपकारिणी सुगम देशभाषा में लिखी गई। इसलिये इसका पूरा नाम 'षडावश्यक बालावबोध' वृत्ति ऐसा रखा गया ।
तरुणप्रभाचार्य ने यह बालावबोध वृत्ति किस लिये बनाई है। इसका संक्षिप्त निर्देश उन्होंने अपने इस ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में सूचित किया है।
गुजरात के सुप्रसिद्ध नगर पाटण में रहनेवाले ठक्कुर पद धारक मंत्री दलवंशीय बलीराज नामक श्रावक की विशिष्ट अभ्यर्थना के कारण प्रस्तुत सुगम स्वरूप और बालावबोध कारिणी षडावश्यक वृत्ति की रचना की गई, ग्रन्थकार ने रचना की समाप्ति का समय विक्रन सं. १४११ के दीवाली का शुभ दिन बताया है। उस समय अणहिलपुर अर्थात् पाटण में बादशाह फिरोजशाह का राज्यशासन था। इस ग्रन्थ की जो सुन्दर एवं सुवाच्य लिपि में लिखी गई प्रति बीकानेर के ग्रन्थ भंडार में विद्यमान है, वह संवत् १४१२ के चैत्र सुद नवमी शुक्रवार के दिन लिखकर पूर्ण की गई है। यह प्रति भी अणहिलपुर अर्थात् पाटण में ही लिखी गई है और इसके लिपिकर्ता पंडित महिमा नामक यति बर थे। अर्थात् रचना समाप्ति के बाद प्रायः पाँच-छ: महीने के अन्दर यह प्रतिलिपि तैयार हुई। इस तरह इसकी अन्यान्य प्रतिलिपियाँ भी यथासमय उन्हीं वर्षों में तैयार हुई होंगी। हमको जेसलमेर में जो प्रति देखने के मिली वह संवत् १४१८ में उक्त भंडार में स्थापित की गई। ऐसी उसके लेख से ज्ञात हुआ और ये सब प्रतिलिपियां ग्रन्थकार के निजी तत्त्वावधान में ही सम्पन्न हुई थी और इनमें कुछ प्रतिलिपियों को स्वयं ग्रन्थकारने संशोधित की थी। अतः इस ग्रन्थ का जो पाठ प्रस्तुत पुस्तक में मुद्रित है। वह प्रायः शुद्ध है। ऐसा कहा जाय तो उस में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
तरुणप्रभाचार्य का विशेष परिचय ग्रन्थकार तरुणप्रभाचार्य अपने समय में प्रसिद्ध जैन आचार्य और विद्वान धर्म-नायक थे। इनके जीवन के विषय में कुछ बातें पट्टावली आदि में मिलती हैं वे आगे लिखी गई हैं। इन्होंने स्वयं तो अपनी इस ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में जो कुछ थोड़ा परिचय दिया है, उसका सारांश केवल इतना ही है कि सुप्रसिद्ध खरतर गच्छ नामक जैन संघ के वे सुप्रसिद्ध एवं मान्यता प्राप्त आचार्य थे।
इनके दीक्षादायक गुरु का नाम जिनचन्द्र सूरि था।
ये श्री जिनचन्द्र सूरि अपने समय के जैन-संघ में बहुत प्रभावशाली आचार्य हुए। खरतर गच्छ की परंपरा के अनुसार ये द्वितीय जिनचन्द्र के नाम से प्रसिद्ध हैं।
प्रथम जिनचन्द्र सूरि खरतर गच्छ के मूल संस्थापक एवं प्रतिष्ठापक श्री. जिनदत्त सूरि के दीक्षित शिष्य थे। ये गच्छानुयायियों में 'मणिधारी दादा' जिनचन्द्र सूरि के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनका जन्म विक्रम सं. ११९७ में हुआ था और छ: वर्ष जैसी बाल्यावस्था में (सं. १२०३) जिनदत्त सुरिने इनको अपना दीक्षित शिष्य बनाया। ये अत्यन्त तेजस्वी और अप्रतिम प्रतिभावान बाल मनि थे। गरुवर्य श्री जिनदत्त सूरिने अपनी योग विद्या का सर्वथा श्रेष्ठ पात्र मान कर इनको उस बाल्यावस्था के दो-तीन वर्ष में ही अपनी योग सिद्धि करनेवाली विद्या प्रदान की और संवत १३२५ में अर्थात् ८, ९ वर्ष जैसी बालवय में ही अपने भावी पट्टघर आचार्य के रूप में इनकी स्थापना कर दी। जैन आचार्यों के प्राचीन इतिहास में यह एक विशिष्ट घटना है।
__ संवत् १२११ में महान् आचार्य दादा साहब श्री जिनदत्त सूरि का अजमेर में स्वर्गवास हो गया। उनके स्वर्गवास के बाद लघुवयस्क आचार्य जिनचन्द्र सूरि ने अपने महान् गुरु के संघ समुदाय का संचालन भार संभाला। अप्रतिम प्रतिभा और गुरुवर्य द्वारा प्राप्त विशिष्ट विद्या बल के कारण जहाँ-जहाँ ये जाते थे वहाँ-वहाँ इनका प्रभाव खूब पड़ता रहता था। इन्होंने मरुभूमि तथा सपादलक्ष के अनेक गाँवों, नगरों में परिभ्रमण किया। मथुरा और दिल्ली के प्रदेश में भी
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