________________
Xviii
प्रत्याख्यान बालावबोध ॥ छ । चउथउ-अधिकार संपूर्ण हूउ ॥ छ । श्री आवश्यकषडावश्यक बालावबोधः । एहमाहि च्यारि अधिकार ॥ छ ।। पहिलइ अधिकारि देव वंदन १। बीजइ गुरु वंदन २। नीजइ पडिकमणउ ३। चउथइपच्चवा । ४ । समाप्तं ।। सवंत् १४५५ वर्षे भाद्रवामासे शुक्लपक्षे १२ गुरुवासरे। लिखितं कायस्थ.....।।
ग्रन्थगत विषय का किंचित परिचय तरुणप्रभाचार्य ने इस ग्रन्थ के आवश्यक सूत्र में आनेवाले विषयों का बहुत विस्तार से विवेचन किया है। उन्होंने न केवल आवश्यक सूत्र के अन्तर्गत सूत्र पाठों का ही अर्थोद्घाटन करने का प्रयत्न किया है। अपितु प्रसंगान्तर्गत अनेक अन्यान्य शास्त्रीय उल्लेख और प्रमाण उद्धृत करके उनका भी अर्थोद्घाटन किया है। इसलिये इसमें मूलसूत्र पाठ के सिवाय सैकड़ों प्राचीन गाथाएँ तथा प्रकरण आदि से बहुत से श्लोक भी उद्धृत किये गये हैं और उनका भी स्पष्टीकरण सूचक अर्थ लिखा गया है। कहीं-कहीं किसी विषय से सम्बन्ध रखनेवाले लम्बे प्रकरण भी उद्धत कर दिये हैं।
उदाहरण के तौर पर खान पान के विषय में जैन धर्मानुयायियों को किस प्रकार संयम रखना चाहिए और किन-किन वस्तुओं का उपयोग नहीं करना चाहिए इस विषय में जो अनेक नियम उपनियम बतलाये गये हैं, उनमें मद्यपान, मांसभक्षण, रात्रिभोजन, आदि का निषेध भी बताया गया है। मद्यपान के कारण मनुष्य को किन-किन दोषों का भागी होना पड़ता है और मनुष्य का जीवन किस तरह दुःखमय और दुर्गुणमय बनता है, इसके लिये प्रमाण स्वरूप हिन्दूशास्त्रों में से अनेक श्लोक उद्धृत किये हैं। इसी तरह मांस भक्षण के लिये भी हिन्दुग्रन्थों में से निषेधात्मक कई श्लोक उद्धृत किये हैं। रात्रि भोजन से होनेवाले शारीरिक और मानसिक दोषों का निरूपण करनेवाले कई ग्रन्थों के श्लोक उद्धृत किये हैं। इस विषय में आयुर्वेद शास्त्र के भी कुछ प्रमाण लिखे हैं (देखें प्रस्तुस्त ग्रन्थ के पृष्ठ १७३ से १७६ तक दिये गये संस्कृत श्लोक)।
इसी तरह जैन धर्मानुरागियों को व्यापार आदि में भी किस प्रकार का संयम रखना चाहिए और किस-किस प्रकार के व्यापारिक कर्म भी नहीं करने चाहिए। इसका भी बहुत मार्मिक विचार धार्मिक दृष्टि से किया गया है और उसके लिए जैन ग्रन्थों में से अनेक शास्त्रीय प्रमाण उद्धत किये गये हैं। (देखें पृ. १७८ से १८० तक)।
प्रसंगानुसार जैन गृहस्थों को अपने लोक उपभोग की सामग्री के व्यवहार में किस प्रकार का संयमभाव रखना चाहिये और उससे किस प्रकार मनुष्य को लाभ अलाभ आदि फल की प्राप्ति होती है। जिसके लिये उदाहरणस्वरूप एक पुरानी धर्म-कथा भी लिखा गई है। इसी तरह अहिंसा, सत्य,आस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि व्रतों के पालन के विषय में भी गुण-दोष सूचक अनेक ग्रन्थ प्रमाण लिखे गये हैं। तथा विवेचनीय विषयों को स्पष्ट करने के लिये तद् तद् विषयक उदाहरण भूत पुरानी कथाएँ भी लिखी गई है। ये सब कथाएँ हमने अपनी उक्त प्राचीन गुजराती गद्य संदर्भ नामक पुस्तक में भी प्रकाशित कर दी थी। जिनकी संख्या २३ है। कहीं-कहीं ग्रंथकार ने अपनी स्वरचित रचनाएँ भी प्रसंगानुसार कर दी है जैसे कि पृ. २१६ से २१९ पर स्वरचित "त्रैलोक्य शाश्वत जिन प्रतिमा प्रमाण स्तवन' नामक चालीस पद्यों का एक पूरा स्तोत्र ही उद्धृत कर दिया है। इसी तरह पृष्ठ २२६ पर "शाश्वत जीव बिंव स्वरूप निरूपक" नाम से आठ पद्यों का एक और स्वरचित स्तवन उद्धृत किया है। __इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में आबाल जनों को जैन धर्म विषयक ज्ञातव्य विचारों और सिद्धान्तों का परिज्ञान कराने का योग्य प्रयत्न किया गया है और इसलिये यह यथार्थ बालावबोधक ग्रन्थ बन गया है।
ग्रन्थ का मूल नाम 'षडावश्यक सूत्रवृत्ति' ऐसा है। परन्तु यह सूत्र वृत्ति प्राचीन प्रथानुसार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org