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________________ xvii प्रस्तुत सम्पादन में, जैसाकि श्री प्रबोध पंडित ने सूचित किया है तीन-चार प्राचीन हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं इसमें सबसे पहले जो प्रति मेरे देखने में आई वह ऊपर उल्लेखित पूना के भांडारकर प्राच्य विद्या संशोधन मंदिर के संग्रहगत राजकीय ग्रन्थागार की है। परन्तु बाद में बीकानेर के प्रसिद्ध जैन भंडार में इस ग्रन्थ की एक वैसी ही विशुद्ध प्रति उपलब्ध हुई जो प्रसिद्ध साहित्योपासक और बहुपरिश्रमी लेखक श्री अगरचंदजी नाहटा द्वारा प्राप्त हुई। वैसी ही दो अन्य प्रतियाँ क्रमशः पाटण (गुजरात) और लीमड़ी (सौराष्ट्र) के ज्ञान भंडारों से प्राप्त हुई। ये सब प्रतियाँ ग्रन्थकार के समय की है। ग्रन्थकार के उपदेश ही से उनके भक्त श्रावकोंने इन प्रतियों का आलेखन कराया है। अतः इस दृष्टि से इस ग्रन्थ का यह सम्पादन एक विशिष्ट महत्त्व रखता है। इस ग्रन्थ की एक ऐसी ही विशिष्ट प्रति हमको जेसलमेर के भंडार में देखने को मिली थी। हमारे विचार से यह प्रति सर्वोत्तम थी। इसके प्रथम पृष्ठ में सुवर्णमय जिन भगवान का चित्र था और दूसरे पृष्ठ के प्रथम पार्श्व में तरुणप्रभाचार्य का रेखांकित स्वर्णमय चित्र था। मालूम देता है कि इस प्रति को स्वयं ग्रन्थकारने अपने हाथ से संशोधित की थी। इसकी अन्तिम प्रशस्ति में उल्लेख किया गया है कि इस ‘षडावश्यक बालावबोध' की अट्ठारह प्रतियाँ उस समय तैयार की गई थी। उनको भिन्न-भिन्न भंडारों में स्थापित की थी। इस प्रशस्ति की हमने नकल करली थी। परन्तु वह हमारे संग्रह के इधर उधर हो जाने से अब हमें प्राप्त नहीं है। कुछ ऐसे अन्य बालावबोध भी उपलब्ध हुए हैं अन्यान्य भंडारों के अवलोकन करते समय हमें ऐसे और भी षडावश्यक बालावबोधों की प्रतियाँ देखने में आई, जिससे मालूम होता है कि तरुणप्रभाचार्य प्रस्तुत बालावबोध के अतिरिक्त भी अन्य कुछ विद्वानों ने ऐसे बालावबोधों की रचनाएँ की हैं, जो इसी प्रकारकी भाषा शैली में लिखी गई है। तरुणप्रभाचार्य खरतर गच्छ के एक विशिष्ट अनुयायी थे और उन्होंने अपने गच्छ के उपासक जनों की दृष्टि रखकर अपने गच्छ की परंपरानुसार इस ग्रन्थ में सूत्र पाठ अलेखित किया है। संभव है इसी तरह तपागच्छ आदि अन्य गच्छों के विद्वानों ने भी अपने-अपने गच्छों को परंपराअनुसार मान्य सूत्र पाठ पर बालावबोध लिखे होने चाहिए। इसी प्रकार का एक अन्य ‘षडावश्यक बालावबोध' हमारे अवलोकन में आया है, जिसके स्थान का अब हमें ठीक से स्मरण नहीं है। शायद अहमदाबाद के ही किसी भंडार से उपलब्ध हुआ था। परन्तु उसके अन्तिम दो पन्नों की फोटोकापी हमने अहमदाबाद में रहते हुए करवा ली थी, जो अभी तक हमारे पास है। यह प्रति भी बहुत पुरानी है। यह बालावबोध भी बहुत पुराना लिखा हुआ है। इसकी पत्र संख्या १५५ है। इसका जो अन्तिम पत्र है वह मूल प्रति थी, आकृति और लिपि से कुछ भिन्न है। इससे मालूम होता है कि मूल प्रति का अंतिम पत्र किसी कारण से नष्ट या भ्रष्ट हो जाने के कारण पीछे से नया पत्र लिखकर मूल प्रति के साथ सलग्न कर दिया गया है। यह नया पत्र में १४५५ में लिखा गया है। अतः मूल प्रति इससे अवश्य पुरानी लिखी गई होनी चाहिए तथापि सं. १४५५ का उल्लेख सूचित करता है कि कम से कम तरुणप्रभाचार्य के बालावबोध रचना के समसामयिक ही यह बालावबोध रचा गया होगा। इस बालावबोध की प्रति का अन्तिम उल्लेख नीचे दिया जाता है। भाषा की दष्टि से यह उतनी परिष्कृत नहीं मालूम देती, जितनी तरुणप्रभाचार्य की रचना में दृष्टिगोचर होती है। इस दृष्टि से ही तरुणप्रभाचार्य की रचना को हमने श्रेष्ठ समझा है। तथापि भिन्न-भिन्न लेखक विद्वानों की विभिन्न शैली की दृष्टि से ऐसे सभी ग्रन्थों का संशोधन संपादन कार्य होने से भाषा के विकास विस्तार एवं प्रचार का सम्यक ज्ञान प्राप्त हो सकता है। ऐसे ग्रन्थों के अध्ययन से शब्दोच्चार और शब्दाक्षर संयोजना के विविध रूपों का विश्लेषणात्मक अध्ययन बहुत जरूरी है। ___ "एह्वा पच्चक्रवाणनइ विषइ। विवेकिइं। यत उद्यम खप करवा। जेह भणी सूधा धर्मनउ उद्यम जीव हृई। मोक्ष फलदायी उथाइ।।। छ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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