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________________ १९० षडावश्यकबालावबोधवृत्ति [8534-35) ७८०-७८१ जिणि गृहप्रमाणु देशावकाशिकु कीधउं हूयइ सु जउ घर बाहिर हूंतउ वस्तु घर माहि अनेरा कन्हा अणावइ तउ आनयनु प्रयोगु १,। अनेरा पाहई घर बाहिरि मोकलइ तउ प्रेषापण प्रयोगु २,। घर बाहिरि वर्तमान नर रहइं कार्य कराविवा कारणि कासादि शब्दि करी आपणपउं घर माहि 5 छतउं जाणावता हूंता शब्दानुपातु ३। आपणपउं माहि छतउं जाणाविवा कारणि आपणउं रूपु दिखालता अथवा ऊंचु' होई पररूपु देखता रूपानुपातु ४। नियमित देशइतउ बाहिरि पुद्गल पारवाणादिक तीहं तणइ क्षेपणि करी आपण कार्यु समरावता हूंता पुद्गल क्षेपु ५,। 'देसावगासियंमी'त्यादि पूर्ववत् । $534) देशावकाशिक व्रत विषइ सुमित्र मंत्रि कथा लिखियइ। देशावकाशिकं यावत्कुरुते श्रद्धया सुधीः। तदन्यत्रात्मनां तेनाभयं दत्तं भवेदिति ॥ [७८०] प्रभावात्तस्य नश्यन्ति विघ्नाः शुद्धात्मनामिह । सुमित्रस्यैव जायन्ते परत्र च शुभश्रियः ।। [७८१] 15 तथाहि मालव्यदेशमंडन' चंद्रिका नामि नगरी। तारापीडु इसइ नामि राजा तिहां राज्यु करइ । सुमित्रु नामि तेह तणइ मंत्री। सु पुण जिनधर्म-काचकपूर पूरवासित-सप्तधातु परम सुश्रावकु । शास्त्र रत्नदीपदापित जेह तणइ हृदयमंदिरि जीवाजीवादि वस्तु स्फुट इ जि वर्त्त। तारापीडु राजा नव तारुण्यवंतु पुण्यकर्म परामखु हूंतउ सुमित्र मंत्रि प्रति भणइ, “ देवपूजा गुरुपादवंदना दानादिधर्मे करी 20 किसइ कारणि मुधा आपण जन्म नगमइ ? तू जिम विफलहं ईहं धर्महं करी सुवर्ण आपणउं देहु कउणु दहइ ?" इसीपरि राइ भणतइ हूंतइ सुमित्रु मंत्री विकसितवदनु हूंतउ राजेंद्र प्रति भणइ, "महाराज ! इसीपरि अनुचितु वचनु तुम्हे काई बोलउ ? हउं तुम्हहीं रहई धर्म विषइ उद्यम कराविवा बांछडं । तुम्हे पुण मुंहीं रहइं धमाधमु राखिवा वांछउ । हा महा विषादो मम । सु धर्म किम विफलु हुयइ, जेह तणा प्रसादइतउ स्वर्ग मोक्ष तणां सुख पुण जीवि हेलाई लाभई"? अथ राजा प्राह 25 मू रहई विपत्ति-निवृत्ति-संपत्ति-प्रवृत्ति-लक्षणु धर्मफलु प्रत्यक्षु दिखालि।" 5535) मंत्री प्राह; “महाराज ! त राजा, अनेरा ताहरा सेवक लोक, एउ प्रत्यक्षु धर्म तणउं फलु किसउं न हुयई ?” तउ राउ मंत्रि प्रति भणइ, एकि पाखाणि बि खंडि कीधइ हूंतइ, एकि' खंडि देवतामूर्ति हुयइ बीजइ खंडि सोपानु हुयइ । भणि महामात्य ! किस एकि खंडि पुण्य कीधउं, बीजइ खंडि पापु कीध छइ? तिणि कारणि स्वभावही जि तउ विश्व रहई भव्याभव्यता व्यवस्थापिवी"। इसइ वचनि राइ भणिइ हंतइ मंत्री भणइ, “राजन् ! पाषाणु पाषाणु अजीवु, तेह तणउं दृष्टांतु न हुयई', काइं जउ धर्मी जीवु हुयइ तउ धर्म पुण्य पापु हुयई। तथा जइ सजीवु पाषाणु कहियइ, 'पुढवि चित्तमंतमक्खाया, अणेगे जीवा पुढो सत्ता। अन्नत्थ सत्थ परिणएणं' इसा आगमबचनइ. $533) 1 Bh. ऊंचउ । 8534) 1 P. मंडन देशि। B. has the same order but it is corrected later. 2 P. परमा। 3 P. विकशित । 4 P omits वां-15 Bh. जीव । 6 B. P. संप्रत्ति। 8535)1 P. एक । 2 B. भणइ । p. भणई। 3 Bh. adds किसउं । 4 p. हुइ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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