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________________ १८५ षडावश्यकबालावबांधवात्त [5529). ७७१-७७३ संभावी करी प्रभात समइ राउ वासरकृत्य करिवा कारणि आपणइ आवासि आविउ । रात्रि समइ सार परिवार सहितु भयरहितु निज नगरहितु राउ चंडिका देवकुलि आविउ । शूरशूर सुभटपूर दूरदूर रहावी करी आपणपई स्तंभांतरितु होई करी देवकुल माहि रहिउ । बिहुँ पहर रात्रि समइ पादुकासिद्ध तेह तस्कर रहई तिहां आविया हूंता राउ देखइ । पादुका युगलु ऊतारी वामि करि लेई, देवकुल माहि 5 जाई, सु चोरु प्रधानरत्नहं करी देवीपूजा करइ । पूजा करी देवी आगइ कहइ, “ स्वामिनि ! चोरीकारिया स्वेच्छाचारिया मू रहई प्रभूत धनदा क्षणदा सदा होइजिउ"। इसउं भणी पाछउ वली सु महाबली जायतउ हूंतउ द्वारु रूंधी करी रहित हूंतउ राई' बोलाविउ । 529) “ रे ! जीवतउ नहीं जाइ " इसी परि राइ धर्षितु हूंतइ बोलाविउ हूंतउ सु चोरु प्रस्तावोचितु हथियारु पादुका युगलु राय ना भालस्थल उद्दिसी करी लांखइ । तेह 10 नइ प्रहारि करी वेदनाक्रांति राइ हृयइ हूंतइ, “ एह हउं जीवतजाउं छ" इसउं भणतउ सु चोरु बाहिरि नीसरिउ क्षणांतरि राइ वेदनारहिति ह्यइ हूंतइ ‘जाइ' 'जाइ' इसी परि राइ भणतइ हूंतइ पाखतियां राहविया हूंता जि उद्भट सुभट ति तेह रहई केडइ धाया। आकाशगति हेतु पादुका युगलु मंत्रिवचनइतउ ले करी राउ पुणि' चोर पुठि द्रवडिउ।सु चोरु गतिवेगी करी दूरमुक्त शूरपूरु,' पुर ग्रामांतर मार्गातर लोकसंचार माहि पग गोपाविवा कारणि गयउ। 15 भयवशइतउ कांई एकु वैराग्यि गयउ हूंतउ चीतवइ । “आजु माहरउं पापु निश्चइसउँ फलिउं" कही एक ग्राम तणइ आरामि ध्यानतत्त्वु उपदिशतउ छइ मुनि तेह तणउं इस वचनुं सांभलई'। " सर्वत्र ध्यानसमतारुचिर्मुच्येत पातकैः। जनः सद्योपि तिमिरैः कृतदीप इवालयः॥" [७७१] "जिम दीवइ कीधइ आलउ धरु तिमिरहं अंधकारहं मेल्हियइ तिम जन ' लोकु, ध्यानवशइ. 20 तउ सर्वत्र10 'समतारुचि' किसउ अथु ? सर्वभाव विषइ समानबुद्धिपरिणामु, न कही विषइ सरागु न कही विषइ सद्वेषु जु हुयइ सु सर्वत्र समतारुचि" कहियइ । इसउ समता वर्त्तमानु जनु पातकहं पापहं 'सद्यः' किसउ अर्थ ? तेतीही जि वार 'मुच्येत ' मिल्हितइ ।" इसउं ध्यानतत्त्वु सांभली करी सु चोरु तिहाई जि रहितु सारवस्तु ति असारवस्तु निंदाविरहितु, मध्यस्थभावि निमग्नु, शेषरात्रि, आगामि दिनु ध्यानस्थितु थाकउ तिम, जिम परमात्मा नइ विषइ मनु स्थिरु हूयउं । घातिकर्मक्षयवशइतउ शुक्ल 25 ध्यानांतरिका वर्तमान हूंता संध्या समइ केवलग्यानु ऊपनउं । तथा च भणितं तव तविए जव जविए बहुविह कालेण हुंति सिद्धीओ॥ निद्दहियपुन्नपावा 13 झाणेण तत्क्षणा सिद्धी॥ तथा ध्यान समता ऊपहरऊं संसारिसुखु पुण" कांइ नथी। तथा च भणितं जं च कामसुहं लोए जं च दिव्वं महासुहं । 30 वीयरायसुहस्सेहऽणंतभागं" न अग्घइ ॥ [७७२] अज्जं वा कल्लं वा केवलनाणं भवेइ का तत्ती । समरस तत्ते पत्ते कि अहियं भणसु मुकरवे कि ॥ [७७३] 8528) 2. P. नरहितु। 3. P.--पूरइ । 4. Bh. P. omit. 5. Bh. राति । 6. P. ऊतरी । 7. P. वाम 8. P. देवकुलि। 9. Mss. read : राउ तिणि बोलाविउ which is not supported by the context,hence the emendation. 8529.) 1 Bh. राउ । 2. Bh. प्रकारि । 3. P. जीवु-। 4. Bh. जायउं । 5. P. उद्रढ । 6. P. पुण । 7. Pशरपरु । 8. P. उभय। 9. P. सांभलीइ । 10. P. सव्वं जीव । 11. P. समानता। 12. Bh. P. मेल्हियड। 13. B.-पाव । Bh.-पावं । 14. P. पुणु । 15. P.-दिहूँ। 16. P. सहस्सेणं ह-। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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