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________________ 5514-16).७५३] : श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत पूर्ववातु वाइउ । सुभक्ष फलहं विषइ छइ फलदु जलदु, तेह नउ जिसउ4 अंकूर हुयइ इसउ जलदलवु पूर्वदिसि समुदितु राजेंद्रि दीठउ। जिम भाग्यवंत पुरुष रहइंश्रीप्रवर्द्धइ तिम सु जलदलवु विस्तरिउ । वीजइ भणित अंगुली हई, तिणि करी दुर्भिक्ष्यहेतु जि छई दृष्टग्रह तीहं रहइं तर्जतउ हतउ बहावतउ हतउ। बलाकाई भणित दंत हूया। तीहं करी जोइसी तणां वचन हसतउ हूंतउ दर्शनमात्रिहिं जि दुर्भिक्षु भांजी करी गाजतउ हूंतउ । धारा भणित मुसल नीपनां, तेहे करी जन तणा दुक्खकण खांडतउ हूंतउ। दक्षिणोत्तर-5 लक्षण बिहुं समुद्रहं तणउं जिसउं जलाकर्षकु नालु हुयइ इसउं धनुष्कु ताडी करी सु मेघु वूठउ । जाणियइ किरि दुर्भिक्ष्य रहई दैवु रूठउ । लोक रहई तूठउ। 'इणि एक हिं" जि वृष्टि करी काल निष्पत्ति हुई', इस लोकु तदाकालि बोलतउ साभली करी सज्जन जिम काजु करा गुणस्तवन कात्तिभय बाहतउ जाणे मेहु तिरोहितु हूयउ॥ 8515) निवृत्त-चिंता-संताप महिपति रहइं बीजइ दिवसि उद्यानपालु वीनवइ, "देव! महाराज!10 तुम्हारइ क्रीडोद्यानि चउमासि रहिया हूंता श्रीयुगंधर सूरिवर रहई आजु' केवल ज्ञानु ऊपनउं । उद्यानपाल रहइं पारितोषिकु'प्रभुतु दानु दे करी तउराउ उद्यान वनिचालिउ। त्रिन्हि प्रदक्षिणा दे करी मुनिवर रहई वांदी करी उचितस्थानि समासीनु देसना सांभल। तउ पाछइ प्रस्तावि राजा कृतांजलि ९तउ पूछइ। “भगवन् ! तीहं नैमित्तिकहं नउं वचनु किसि परि विघटिउं"? केवली कहइ “ ग्रहदुर्योगि करी द्वादश-वार्षिक दुर्भिक्ष्यु हूंतउ, पुणि जिणि कारणि सु दुर्भिक्षु न नीपनउं सु कारणु ईहं नैमित्तिक रहई गोचरु नहीं॥ तथाहि -15 5516) पुरिमतालु इसइ नामि पुरु । तिहां प्रवरु इसई गुणहं करी प्रवरु नरु एकु हूंतउ । सु पुण नवइ यौवनि कर्मवशइतर रोगपीडितु हूयउ । सु पुण रसणिदिउ जिणी सकइ नहीं। पाछइ जु जु आहारु आहरइ सुसु आहारु तेह रहई आधारु हुयइ। तउ पाछइ प्रवरु नरु आपणा मन माहि चीतवइ । “जु आहारु शरीर रहई अहितकारकु तेह नउं प्रत्याख्यानु हउं काई करउं नहीं। अनाहार प्रत्याख्यान तणां काइं लिउ नहीं।" इसउं चीतवी करी गुरु नी साखि इस भणइ, “ जि स्निग्ध लवण मधुर आहार ति 20 हउं आहरिसु नहीं। जि तिक्त कटुक कषाय आहार ति हउं आहरिसु। ऊनोदरता व्रति वर्तमानि हूंतउ जह तणा संगवशइतउ ईष्र्षालु थिकी मुक्ति पुरुषहं रहई सामुहउँ न जोयई स स्त्री सर्वथा परिहरउं"। इसउं अंगीकरी व्रतु सु अखंडु पालतउ हूंतउ धर्म तणा प्रभाववशइतउ' इह लोकिहिं रोगमुक्त हूयउ। अथवा धर्म रहई किस काई असाध्यु छइ ? नीरोगु हूयउ हूंतउ सु प्रवरु नरु आपणउँ' व्रतु अमेल्हतउ हूंतउ, स्वयंवर प्रभूत लक्ष्मीवरु हूयउ। जाणियइ तेह नी विभूति आगइ स्वर्गु अल्पविभूति जाणी करी दासी 25 तणइ मिषांतरि तेह नइ घरि देवता सेवा वृत्ति करिवा कारणि आवि। तथापिहिं सु विषयाशक्त न थिउई। मार्ग नी कोटि करी जु तेह नइ घरि धनु आवइ सु धनु पात्रदान" दयादान उचितदान लक्षण छई गरूया त्रिन्हि मार्ग तेहे करी नीसरइ । अनेरइ वरसि रंकलोकह रहइंदुःप्रेक्षु दुर्भिक्षु नीपनउ ।जिम निदाघ समइ जलासय सुसइ तिम यदाकालि सामान्यजन दान धर्म खिसई, तदाकालि प्रवर ना दान धर्म घणेरडं उल्लसई। ग्रीष्मे सरांसि शुष्यन्ति, सत्कल्लोलश्च वारिधिः। दुष्काले स्तब्धतां यान्ति नीचा उच्चाश्च दानिनः॥ [७५३] तउ पाछइ जिम संसारभयभीतहं एकू जु जिनधर्म सेवियइ, तिम दुर्भिक्ष्यभय भीतहं जनह एकू जु प्रवरु नरु सेविउ । दिगंत समागत साधुशत सहस्रलक्ष संख्य प्रासुकेषणीय पक्वान्न दधि दुग्ध धृतादिकहं 514) 14 B. P. omits. 15 P. दिशि। 16 P. एकहीं । 515) 1 P.omits. 2 P.omits. 3 P. omits. -न-। 4 P. दुर्भिक्षु। 5B. Bh. नी मति रहई । 6 P. omits. 516) 1 P. adbs. नामि। 2P. -वसतउ। 3 Bh. had कांइ प्रत्याख्यानु कर... | but a later correction alters it to प्रत्याख्यानु कोइ करंडे... P. follows this correction. 4 Bh. सामुहूं। 5 Bh. - अंगीकृतु। 6 P. प्रभावतउ। 7 Bh. आपणपउं। 8 P. जाणि। 9 Bh. विषयासक्तु। 10 Bh. थिओई। 11 Bh.सुपात्रदान । 12 P. गरूयाई। 13 P. omits 14 P. omits 15 दुर्भिक्ष। 16 P. संख्या। 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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