SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 15 षडावश्यकबालावबोधवृत्ति [$316-17).७५४-५७ करी विहरावइ । श्रावक पुण वय नइ अनुसारि पितृ मातृ भ्रातृ समान देखतउ" हूंतउ घरहिं जि रहावह' वस्त्रभोजनादि आपणपा समू जु करावइ । इसी परि सुपात्रदानकव्यसन पोषी करी अखंडु व्रतु प्रतिपाली करी कालयोगवशइत उ प्रवरू मरी करी देवलोकि सुरवरु हयउ। जिसउं इंद्र हुयइ ऋद्धि करी तिसउं इंद्र सामानिकु हूयउ । शाश्वताहत यात्रादि सुकृतह करी आयु पूरी चित्ति चीतवइ । 'प्रधानि श्रावक नइ कुलि छ हउं ऊपजिजिउं। मिथ्यात्विकुलि राजेंद्रू म होइजिउं'। तउ पाछइ ताहरा नगर समापि छइ चित्रशालु इसइ नामि विचित्रशालु पुरुवरु तिहां छइ शुद्धबुद्धि इसइ नामि श्रावकु जिणि इसी दुर्भिक्ष वार्ताई धान्य तणउ संग्रह न कीधो। तेह नइ विमला इसइ नामि गणहं करी अति विमला श्राविका। तेह नी कुक्षि संभूतु सु देवु पुत्रु हूयउ।तेह महाभाग तणइ जन्मि द्वादश वार्षिक दुर्भिक्ष हेतुक ग्रह निर्जिणी करी सुभिक्षु कीधउं।" इसउं केवली वचनु सांभली करी केवली रहई वांदी करी। चित्रशालि नगरि 10 जाई सु बालकु उत्संगी करी इसी परि स्तुति करइ। दुर्भिक्षपङ्कमग्नोपि व्याधार वीर नमोस्तु ते । राजा त्वमेव मे राज्ये तलाराख्योस्मि तावकः ॥ [७५४] मूर्तिमानिव धर्मोयमित्थं दुर्भिक्षभङ्गकृत् । इति तस्याभिधा धर्म इति धात्रीभृता कृता॥ [७५५] 8517) तउ पाछइ सु बालकु जातमात्र हूंतउ प्रसिद्धउ हूयउ। अनेराई जि के पाखतियां राजा छई तेहे पुण आपणइ राज्यि धर्म नी आणि प्रवर्तावी करी मेह वरसाविया। समस्त राजमंडल तणा कालोचित वयोचित प्राभृत दिनि दिनि तेह रहई आवइं। जिम मंदरकंदरागतु कल्पपादपु निरुपद्रवु थिक प्रवर्द्धइ तिम सु बालकु प्रवर्द्धइ । यौवनि आविइ हुँतइ जिम समुद्र रहई नदी स्वयंवर आवई तिम सबहीं दिसि तणा जि छइं राजेंद्र तीहं नी दीकिरी स्वयंवर आगत अनेकि सु धर्मबालकु परिणिउ । धर्म समस्त 20 माहमस्तक विहितानु देवगुरु भक्तिमंतु धर्मवंतु नवां कर्म अबांधतउ पूर्व पुण्यफल भोग भोगवतउ प्रस्तावि संयमु ले करी केवलज्ञानु ऊपाडी' मोक्षि पहुतउ ॥ भोगोपभोगविरतिं प्रतिपाल्य पूर्वं धर्मों यथा शिवमवाप निरस्तपापः। यूयं तथेह भविकाः प्रतिपद्य सद्यः सिद्धिश्रियं वृणुत तिष्ठत लोकमौलौ ॥ [७५६] भोगोपभोग परिमाणव्रत प्रतिपालन विषइ धर्मराजेंद्र कथा समाप्ता। 5518) अथ अनर्थदंड विरतिलक्षणु त्रीजउं गुणवतु लिखियइ। तत्र अर्थ देह स्वजनादि कार्यु, तेह नउ अभावु अनर्थे । तउ पाछइ प्राणियउ कार्य पाखइ पुण्य धनापहारि करी पापकर्महं दंडियइ लंटियइ जिणि करी सु अपध्यानाचरितादिकु अनथु दंडु कहियइ । तेह तणउ मुहूर्तादि कालावधि करी निषेधु अनर्थदंडावरति व्रतु कहियइ ॥ तथा च भणितं तहणत्थदंडविरई अन्नं स चरविहो अवज्झाणे । पमयायरिए हिंसप्पयाण पावो व एसे य ॥ तथा अनर्थदंडश्चतुर्धा चउं भेदे हुयइ। यथा अपध्यानाचरितु, १प्रमादाचरितु २, हिंस्रवस्तु प्रदानु ३ पापोपदेशु ४। 25 [७५७] 516) 17 P. दोषतउ। 18 P. रहाविउ। 19 Bb. P. पुरवह। 20 P. संग्रहणु। 21 B. महा श्रावग 22P. omits-क। 23 Mss have सुभक्षु। 24 Bh. मनोयाधार। 517) 1 Bh P. आणी। 2 B. Bh. कालोपचित। 3P. थकउ। 4 P. आवियइ। 5P. दीकरीं । 6 Bh. भक्तिवतु। 7 P. ऊपाजी। 8 P. मोक्ष। 9 P. omits, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy