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________________ षडावश्यकबालावबोधवृत्ति [8452-454). ६०७-६०८ संपदो विपदोऽपि स्युः पूर्वकर्मवंशादृशम् । मूढो मुदं विशादं वा तत्संपत्तिषु तन्वते ॥ [६०७] पुण्यप्राप्तिनिबंधनु यात्राकरणु मेल्ही करी पुण्यलभ्य राज्य तणइ कारणि पाछउँ वलनु युक्तउं नहीं । तथा सर्वनासिहि' यात्रा अकरी हउं वलउं नही । यदाहुः प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः प्रारभ्य विघ्नचकिता विरमन्ति मध्याः। विघ्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यपानाः प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति ॥ [६०८ ] 8452) इस' भणी करी हंसु राजा आघउ चालिउ। परिवारु कमि क्रमि सगलू पाछउ वलिउ । एकु छत्रधरू आपणापा पासि देखी करि वस्त्रालंकार तुरंगमादि वस्तु समस्तु दे करी पाछउ मोकलिउ। जउ एतलउ लोकु आवत तउ पुणि पुण्यविभागुलियत। लोकु पाछउ गयउ तउ हव 10 मू एकलाई जि रहइं पुण्यु होइसिइ। इसउं मन माहि हर्षितु थिक चीतवतउ हूंतउ तीर्थाभिमुखु एकलउ पादचारािह जि चालिउ । 453) कहीं एक अटवी माहि महीपति रहइं देखताई जि हूंता मृगु एकु परा हूंतउ नाठउ। आवी करी लतावितान माहि पइठउ । तेह नइ पगि लागउ' भीलु एकु धनुष्कि चडाविइ सरि सांधिइ आविउ । राजेंद्र कन्हा पूछइ। “महापुरुष ! इणि पत्रछान्न वनि मृग तणउ पगु दीसइ नहीं । सु पुणि मृगु माहरउं भक्ष्यु किहां गयउ?" तउ पाछइ राजा चित्ति चीतवइ । 'साचइ कहिइ मृगविनासु हयइं, कूडइ कहियइ द्वितीयव्रत भंगु हुयइ । तिणि कारणि बुद्धि करी एउ विप्रतारिवउं।' इस चीतवी करी 15राजा भणइ, "अहो माहरउं स्वरूपु पूछइ। मार्गभ्रष्टु हउं ईहां आविउ।” भीलु भणइ, “ मूढ ! बाठउ मृगु किहां गयउ ?" राजा भणइ, “ हउं सु हंसु नामि पुरुषु" । आहेडी गाढई स्वरि कहइ, “मृग नउं माणु मूर्ख मू रहई कहि " । राजा भणइ, “ राजपुरी माहरउं थानकु ।" आहेडी कोपि चडिउ भणइ, "जु तू रहई बधिरता व्याधि गाढउ छइ सु गाढेरउ होइजिउ ।" इसउं भणी करी भीलु अनेरइ मार्गि' गयउ । मृग रहई मतिप्रयोगि छोडवी करी आपणउं व्रतु अलीकवचनपरिहारलक्षणु अखंडु प्रतिपालइ। 454) तिहां हूंतउ आघउ चालिउ। सांमुहा आवता मुनि रहई वांदी करी मार्ग मेल्ही करी "आघउ चालिउ। यम किंकर सरिखा भील बि कोपारुण लोचन धणुहि चडाविइ सरि सांधिई आवी द्र आगइ कहई । “चिरकालइतउ चौर्यनिमित्तु सूरु नामि पल्लीपति नीसरिउ । दूरइतउ एह वन माहि मुंड पाखंडि एक रहई देखी करी, अशुकुनु एउ, इणि कारणि तेह माराविवा कारणि अम्हे मोकलिया। सुपाखंडिकु जइ तई दीठ उ तउ अम्हे आगइ कहि"। तउ राउ मनि चीतवइ । जउ हर्ष मौनु करी रहिसु अथवा व्याज वचन भणिसु तउ भील सरलइ मार्गि जायता हूंता मुनि रहइं विनासहेतु होइसिई। तिणि काराणं सांप्रतु असत्यु जइ कहियइ तउ सत्य कन्हा अधिक 25 पुण्यकारकु हुयइ । इति शब्द छलइतउ सत्यु असत्यु राजा कहइ। “जिणि मार्गि तुम्हे जाउ छउ, तेह मार्ग हूंतउ जु वामउ माणु तिणि मार्गि महात्मा जाइ छइ ”। विश्व जंतु जात रक्षणि' करी दक्षिण मुनि तणउ दक्षिणु, माणु मेल्ही करी ति भील वामइ, सकल जीव विघात भावि करी वामइ मार्गि जिमपूर्विहिं ति भील जायता हूंता तिमाह जि गया । मुनि कुशलि क्षेमि पहुतउ । ति भील बिहुँ प्रकारहं करी अमार्गि गया। 6 P. चडी। 8452) 1 Pइसि। 2 P. पुण्यभागु। 3 P. थकउ । 30 8453) 1 mss. कही। 2 Bh. लागु। 3 P. -छन्न। 4 P. भक्षु। 5 Bh. मृगु- 7 P. थामकि। 8454)1 B.Bh. धणहि । 2 Bh. सरल । 3 P. विनाश -1 4 Bh. रक्षिणि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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