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________________ 5451).६०३-६०६] श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत न्यासापहार कूटसाक्षि बिहुँ अदत्तादान माहि संभविहि हूंतइ। ईहां वचन रहई प्रधान भावना करी अलीक वचन भावना लगी ईहां तीह न भणनु कीजइ । लभ्यदेयवस्तु विषइ जु मानिउं छइ द्रव्यु तेह नइ विषइ राग द्वष भावना लगी अलभ्य अदातव्यता भणनु कूडी साखि कहियइ ५। ए बे द्विपदालीक माहि आवई। पुणि लोक माहि ए बे अतिनिंदित इति जुयउं भणर्नु ईह नउं कधिउं । एह पंचविध अलीक तणी ज विरति तेह तउ 'आयरिए'त्यादि पूर्ववत् ॥ एह व्रत नां अतीचार नउं प्रतिक्रमणु कहइ । सहसा रहसदारे मोसुवएसे य कूडलेहे य। बीयवयस्सऽ इयारे पडिक्कमे देसियं सव्वं ॥ [६०३] तत्र सूत्रु सूचकु हुयइ तिणि कारणि सहसापदि करी सहसात्कारि अणआलोची करी 'चोरु तउं' 'पारदारिकु तउं । इसी परि कही एक रहई अभ्याख्यानु अणहूंता दोष तणउं रोपणु सहसाभ्या-10 ख्यानु जाणिवउं १। तथा रहः शब्दि करी रहोमंत्रभेदु जाणिवउ-सु पुण इसी परि। रहसु एकांतु तिणि एकांति करतां देखी करी इसउं इसउं राजविरुद्ध आलोचई छई।२ 'दारे' इति विश्वास लगी स्वदारहं स्वकीय कलत्रहं जि कथन कहियां हूयई तीहं न द्वेषइतउ अनेरा आगिलइ गमइ कथन दारमंत्रभेदु कहियइ । उपलक्षणत्वइतर मित्रमंत्रभेदु पुण दारमंत्रभोद करी जाणिवउ ३। 16 अणजाणिया ओसह-मंत्रादिकहं तणउं कथनु मृषोपदेशु ४, कहियइ । 'कूडलेहे य' ति। कूडा अर्थ नउं लेखनु कूडलेहु कहियइ ५। 'बीयवयस्से 'त्यादि पूर्व जिम । 8451) अत्र मृषावाद परिहारविषइ हंसराजेंद्र कथा लिखियइ । अणुव्रतं द्वितीयं तद्यद्वाच्यं कापि नाऽनृतम् । भू-कन्या-गोधनन्यास-साक्ष्येषु च विशेषतः॥ [६०४] , जन्तूनामहितं यत्तन्न वाच्यं सत्यमप्यहो। सुधीभिर्धाप्रपञ्चेन बोधनीयोऽत्र पृच्छकः ॥ [६०५] ईदृक् सत्यगिरां वक्ता यथा राजपुरीपतिः । वैभवं बिभरामास हंसः संश्रूयतां तथा ।। [६०६] 25 राजपुरी नामि पुरी। हंसु राजा। सम्यक्त्वमूल श्रावकधर्मधुरा धौरेयता धरतउ अनेरइ दिवसि मास घस्र लंध्यमार्ग रत्नशृंगगिरि पूर्वजकारिति श्रीऋषभदेव देवगृहि तीर्थयात्रा करिवा सकललोक सहितु सत्यवचनमहितु गर्वरहितु हूंतउ चालिउ । अर्द्धमार्गि संघि गयइ हूंतइ पाछा हूंतउ चरु एक आविउ । राजेंद्र रहई वीनवइ, “ महाराज! तुम्ह चालियां पाछइ दसमइ दिवसि अर्जनु नामि सीमालु पुरी लेवा आविउ । तुम्हे जि के रक्षपाल मेल्हिया हूतां ति सब्वे तिणि जीता। राजपुरी 30 आपणी करी बइठउ। भयभीतु लोकु वेसासी करी तुम्हारइ सिंहासनि उपविष्ट वर्त्तइ । अनेरा नई घरि नाठउ छइ सुमित्रु नामि मंत्री तिणि हउं तुम्ह कन्हइ मोकलिउ । इणि कारणि जु काई युक्त हुयइ सु कजिउ ।” तदाकालि समीपगत जि छइ सुभट तेहे कहिउं, "महाराज! वडां पाछां वलियइ। अम्ह हूंता कउणु ताहरइ पुरि विस्फुरइ "। तीहं आगइ राजा कहइ $450) 5. Bh. omits. 6. B. omits. 7. Bh. विश्वासहं । 8451) 1 Bh. adds नामि। 2 Bh. gloss: दिन। 6 P. पाछ।। 7 P. सर्वना सिद्धि । 3 P. अर्जुनु. 4 P. इ। 5 P. कवण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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