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________________ 8442). ५९०-५९१] श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत १५१ विशेषु पुणि इसउ सम्यक्त्वइतउ अणु पाछइ कीजई। शंण काराण अणुव्रत कहियई ॥ अथवा महाव्रतहं हूंता अगु लहुडां इणि कारणि अणुव्रत पांच कहियई॥ तथा च भणितं - थूला सुहुमा जीवा संकप्पारंभओ य ते दुविहा । सावराह' निरवराहा साविक्रवा चेव निरविक्रवा ।। [५९०] । अत्र थूल जीव बेंद्रियादिक सूक्ष्म एकेंदिय पृथिवीकायादिक । तत्र श्रावक रहई एकेंद्रिय जीवरक्षा सर्वथा पलइ नही तिणि काराण दशविशा जीवदया। शूल जीव बेंद्रियादिक संकल्पिार्ह करी विणासिवा नहीं। आरंभिहिं करी विणासिवा नहीं । तत्र आरंभइतउ विनासरक्षा श्रावक रहरं सर्वथा पलइ नहीं। तिणि कारणि पांच विशा। तथा ति सापराधइ राखिवा निरपराधइ राखिवा । तत्र सापराध नी रक्षा श्रावक रहरं सर्वथा 10 पलइ नहीं तिणि कारणि अढाई विशा। सापेक्षतुद्धि करी पुण न दुहवेवा निरपेक्षबुद्धि करी पुण न दुहवेवा । तत्र श्रावक रहई सापेक्षबुद्धि करी दुहवण निषेधु न संभवइ तिणि कारणि सरादु विशउ एकु जीवदया श्रावक रहई हुयह। तिणि काणि मेरुसमान महाव्रत तणी अपेक्षा करी श्रावकवत अणुवत कहियई ति पांच मूल गुण कहियई। तीही जि रहई विशेष गुणकारिता करी दिशवतादिक चिन्हि गुण त कहियई। पांच अणु-1, व्रत त्रिन्हि गुणवत यावजीव पालनीय हुयई । शिक्षाक्त पुणि चत्तारि सामायिक देशावकाशिकादिक कदाचित्पालनीय। जिम शिष्य रहई विद्या पुनयन अभ्यासयोग्य । तिम तिम सामायिकादिक अभ्यासयोग्य। तथा च भणितं - जाहे खणिओ ताहे सामाइयं कुज्जा' इणि आलावइ ‘खणिओ' इसइ पाठि जेतीवार गृहकाजु कांई न हुयई तेतीवार श्रावकु क्षणिकु धर्मावसरवंतु इंतउ सामायिक करिजिउ । इसउ अर्थे। 20 'खणियं' इसइ पाठि जेतीवार क्षणु प्रस्तातु हूयइ तेतीवार सामायिकु 'कुज्जा' कुर्यात् करिजिउन पण दिनावसानिहिं जि अथवा निशावसानिहिं जि। 8442) अथ प्रथमव्रत प्रतिक्रमणु भणइ । पढमे अणुव्वयंमी थूलग पाणाइवाय विरईओ। आयरियमपसत्त्ये इत्थ पमायप्पसंगेणं ॥ [५९१ ] 25 प्रथमि सर्वव्रत माहि सारता करी धुरि वर्तमानि अणुवति महाव्रत तणी अपेक्षा करी लघुतरि। 'थूलग पाणाइवाय विरईओ' गत्यादिकहं स्पष्ट लिंगहं करी बाह्यहीं रहई जीवत्व बुद्धि करी परिज्ञात स्थूल हींद्रियादिक जीव थूलगपाण कहियई। तीह न मांस रुधिर दंत नख अस्थि शंग चर्मादिकई तणइ कारणि अतिपातु विनासु तेह नी विरति निवृत्ति थूलग पाणाइवाय विराति तेह सकासइतउ 'आयरियमयसन्थे। अतिचरिउ अतिक्रमि किसई हूंतइ । अप्रशास्त भावि हूंतइ। किसउ अर्थ | 10 क्रोधादिकि उदयप्राप्ति हूंतइ ।' इत्थ पमायप्पसंगणं' अत्र प्राणातिपात विषद प्रमाद मयादिक पांच'तीहं प्रकर्षि करी प्रवत्तेनु प्रमाद प्रसंगु तिणि करी प्रमाद प्रसंग ग्रहणि करी सजातीय आकुड्यादिक जि छई तीह नउं पुणि ग्रहणु हुयइ ॥ इति गाथार्थः । 8441) 1. B. Bh. सराह। 2 Bh. omits. 8442) 1. Bh. पंच। 2. Bh. साजातीय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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