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________________ 5 10 षडावश्यक बालावबोधवृत्ति [ 8439-441 ) ५८५-५८९ हर्ष रोमांचितगात्र होई करी सिद्धांत विवइ ज भक्ति कीजइ सिद्धांत पुस्तक लिखावियई विधिसउं सारवियर जु सु श्रुतभक्ति लक्षणु इगुणवीसमउं थानकु । धर्मव्याख्यान प्रतिवादि निराकरण कविता कलादिकहं करी जु तीर्थ प्रभावना कीजइ सु प्रभावना नामकु वीसमउं थानकु । 15 ૧૦ (439) तथा च भणितं - अरहंत १ सिद्ध २ पवयण ३ गुरु ४ थेर ५ बहुस्सुए ६ तवस्सी ७ । वच्छयाइ एसुं अभिक्ख नागोवओगे य ८ ॥ [ ५८५ ] [ ५८६ ] [ ५८७ ] $440 ) अथ चारित्रातिचार प्रतिक्रमण करिया वांछतउ हूँउ पहिलउं सामान्यार्हं आरंभ निंदा निमित्तु भणइ । दंसण ९ विणए १० आवस्सए ११ सीलव्वए १२ निरइयारो | खण लब १३ व १४ चियाए १५ वेयाचे १६ समाही १७ य । नागणे १८ सुयभत्ती १९ पवयणे पभावणया २० । एहिं कारणेहिं तित्थयरतं लहइ जीवो || [ ५८८ ] 20 पृथिवी सलिल अनल अनिल वनस्पति त्रस लक्षण जि छई षटकाय तीहं नइ समारंभि परितापनि तथा संरंभि आरंभि इस पुणि जाणिव । तत्र संरंभु संकल्पु आरंभु विद्रावणु । ई छक्काय जीव संबंधिया समारंभ संरंभ आरंभ हूंता जि दोष पाप समाचरण न पुण अतीचार अंगीकरण तणइ अभावि हूँतइ मालिन्य तणा अभावइतर किसइ हूँतइ । दोस इत्याह' पयणे' पचनि हूंत 'पयावणे य' अनइ पचावनि हूंतइ चकारइतउ अनुमति हूंती पुण जाणिवरं । कण निर्मित 'अत्तट्टा य परट्ठा' आपणपा निमित्तु, परु प्राघुर्णकु तेह निमित्तु । ' उभयट्ठा' आप पर बिहुँ निमित्तु । चकारु अनर्थक राग द्वेषादि दोष संसूचकु । ए चकारु प्रकारहं रहई ईयत्ता सूचकु आप पर उभयलक्षण छई तिन्हि पक्ष तहिं तर चउथउ पक्षु नहीं इणि कारणि । अथवा अतिमुग्धता लगी साधु रहई असनि पचिइ मू रहई पुण्यु होइसिर इसी परि आपणपा निमित्तु । तथा पर मातादिक तीहं रहई पुण्यु होइसिइ इसी परि 'परा' परनिमित्तु । पुणि अम्ह बिहुं रहई साधु निमित्तु पचनादिकि 'कीजतइ हूंत पुण्यु होइसिइ इसि परि उभयड्डा उभयनिमित्तु पुणि । अथवा छक्काय समारंभादिकहं विषs सचित्त पुढविकाय लवणादिक । अटकाय सचित्त जलादिक । वाउकाय अनि संधूषणादि कारणि वातकरणादिक । ते काय अग्नि प्रज्वालनादिक वनस्पतिकाय वनछेदन क्षेत्र नीदाण करण सूडण करणादिक | सकाय कीटिकादि गृहप्रमार्जन खंडन पेवण अणहाणियां जल व्यापारणादिक षट्काय जीव सावयव्यापार | तेहें करी अनेराई जि के जीव आरंभु करतां विणसई तीहं करी जि के पाप कीधांति पाप निंदउं । पूर्ववत् । 25 30 छक्का समारंभ पणे पयावणे य जे दोसा | अत्तट्ठाय परट्ठा भट्ठा चैव तं निंदे || Jain Education International $441) अथ सामान्यहिँ चारित्रातिचार प्रतिक्रमण भइ । पंचन्हमणुव्त्रयाणं गुणव्त्रयाणं च तिन्हमइयारे । सिक्खाणं च चउन्हें पडिक्कमे देसियं सव्वं । सुगमा ॥ 438) 5 Bh. लगइ | For Private & Personal Use Only [ ५८९ ] www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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