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________________ 84:0-421).५७७-५७९] श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत अवगाहना । जु पुण कुर्मापुत्तु एकहस्तावगाहनु सिद्धउ श्रीमरुदेवास्वामि नी पांचसय पंचवीसा धनुर्मान तनु सिद्धा सांभलियइ सु आश्चर्यु इस जाणिवउं' । जधन्य मध्यम उत्कृष्ट अवगाहनामानु पूर्व भणितू जु सांभलियइ । तत्र जघन्यावगाहना सिद्ध थोडा। तीहं कन्हा बाजा वि उत्कृष्ट मध्यमावगाहना सिद्ध, असंख्यातगुण । इति अवगाहना विषद अल्पवहत्व भावना सिद्ध संबंधिनी भणी। 8421) अथ संख्या विषइ कहियइ ।। बत्तीसा १ अडयाला २ सट्ठी ३ बावत्तरी ४ य वोधब्बा । चुलसीइ ५ छन्नडई ६ दुरहिय ७ अत्तर सयं ८ च ।। अटु १ य सत्त २ य छ ३ पंच ४ चेव चत्तारि ५ तिन्नि ६ दो ७ एवं ॥ [ ५७७] इसा वचनइतउ । बत्रीस बत्रीस एक निरंतर उत्कर्षपदि आठसमय सीम सिद्धई जाइं एवं 10 सात समय सीम अठितालीस अठितालीस निरंतर सिद्धि जाई । साठि साठि छ समय सीम निरंतर बहत्तर बहत्तरि पांच समय सीम निरंतर सिद्धि जाई। चउरासी चउरासी चत्तारि समय सीम निरंतर सिद्धिई जाई। छन्नंवर छन्नंवइ त्रिन्हि समय सीम निरंतर सिद्धिई जाई। बिडोतरुसउ बिडोत्तरुसउ बि समय सीम निरंतर सिद्धि जाई। उत्कर्षपदि सगले जाणिव तथा अठोत्तरु सउ उत्कर्षपदि एकू जु समउ सिद्धिई जाई । 422) निरंतरं । अंतर उवारत । तऊ पाछइ निश्चइस अंतरु हुयइ । सु जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भावइतउ त्रिविधु हुयइ। .. तत्र जघन्यु अंतरु एकु समउ बि समयादि एक समय ऊन छ मास सीम मध्यम अंतरु छ मास उत्कृष्ठ अंतरु। $423) तत्र जघन्यपदि एक समइ एकु सिद्धिइं जाई उत्कर्षपदि अठोत्तरुसउ सिद्धि जाइं। 20 मध्यमपदि बि आदि धरी सत्तोत्तर सय सीम एक समइ सिद्धिइं जाई इत्येवं रूप संख्या॥ Sa9A) तत्र अटसमय सिद्ध थोडा। तऊ पाछह क्रमिकरी सत्त समयादिक सिद्ध । संख्यात गुण । तथा एकसमय अठोत्तर सय सिद्ध थोडा। तउ पाछइ एकैक हानि करी सत्तोत्तर सयादिक मध्यमपद एकसमयसिद्ध कमि करी एकसमय पंचाससिद्ध सीम अनंतगुण अनंतगुण जाणिवा। तउ पाछइ क्रमि करी एकैक हानि करी इगुणपंचासादिक मध्यमपदैकसमयसिद्ध असंख्यातगुण तां जाणिवां 25 जां पंचवीससंख्य मध्यमपदैक समयसिद्ध । तउ पाछ क्रमिकरी एकैक हानि करी चवीसादि मध्यमपदैकसमयसिद्ध संख्यातगुण तां जाणिवा जां एक समयभावि एकैक सिद्ध। इति संख्याविषइ सिद्ध संबंधिनी अल्पबहुत्वभावना भणी । इसीपरि ए वक्तव्यता नवांगवृत्तिकार श्री अभयदेवमूरिकृत गाथाबंधानुसारि करी मुग्धजनावबोध कारणि विस्तरि करी लिखी। इति नवविधु मोक्षतत्त्वु भणिउं । जीवाइ नवपयत्थे जो जाणइ तस्स होइ सम्मत्तं । भावेण सद्दहंते अजाणमाणनि सम्मत्तं ॥ [ ५७८] सब्वाइं जिणेसर भासियाई क्यणाई न अन्नहा हुंति । इय बुद्धि जस्स मणे सम्मत्तं निचलं तस्स ॥ [५७९] $420)1 Bh. has another sentence, it seems to be a correction : ए अवगाहना तीर्थकरहं नी जधन्य उत्कृष्ट जाणेवी । बीजा सामान्य जीवहं नी ओछी अधिक पुणि होइ जिणि कारणि कुर्मापुत्र अष्टांगुलाधिक एक हस्तावगाहनु सिद्धउ श्रीमरुदेवास्वामि नी पांच सय पंचवीसा धनुर्मान तनु सिद्धा सांभलियई। 8421)1. Bh. adds सिद्धिइं जाई। 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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