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________________ 10 5110--8414). ५७५--५७६] श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत १४१ कर्मक्षयोपशमि करी निष्पन्नु क्षायौपशमिकु भावु कहियइ । कर्मोपशभि करी निष्पन्नु औपशमिकु भावु कहियइ । सांनिपातिकु भावु औदायिकादिभाव संनिपातरूपु कहियइ । तिणि कारणि तीहं चउहूं तणउं अभावु मुक्तहं रहई । इति भावरूप सातमउ मोक्षतत्त्वभेदु ७। $410) 'अप्पा बहुं ' ति। जि मनुष्यगति हुंतां मनुष्यगतिई आवी सिद्धिई गया ति अनंतरसिद्ध कहियई । मनुष्यगति : रहई मनुष्यगति करी अंतर तणा अभावइतउ । जि तिर्यंचगति नरकगति देवगति हुतां मनुष्यगति आवी सिद्धिई जाई ति परंपरासिद्ध कहियई। तिर्यंचादि गति रहई मनुष्यगति करी व्यवधानइतउ परंपरता भावइतउ । तत्र अनंतरसिद्ध थोडा तीहं कन्हा परंपरासिद्ध असंख्यातगुण इति । सिद्धहं तणउ अल्पत्व स्वरूप आठमउ मोक्षतत्त्वभेदु८। बहुत्वरूपु नवमउ मोक्षतत्त्वभेदु संक्षेपिहिं जाणिवउ । 8411) विस्तरइतउ पुण अल्पबहुत्व वक्तव्यता सिद्धहं तणी अनेके प्रकारे सांभलिया। यथा खित्ते १ काले २ गति ३ लिंग ४ तित्थ ५ चारित्त ६ बुद्ध ७ नाणाई ८ । अवगाहं ९ तर १० संखा ११ अप्पबहुत्तं च सिद्धाणं ॥ [५७५] इसा वचनइतउ पूर्वावस्थ क्षेत्र विषइ १, पूर्वावस्थ काल विषइ २, पूर्वावस्थ गति विषइ ३, 15 पूर्वावस्थ लिंग विषइ ४, पूर्वावस्थ तीर्थ विषइ ५, पूर्वावस्थ चारित्र विषइ ६, पूर्वावस्थ बुद्ध विषइ ७, पूर्वावस्थ ज्ञान विषइ ८, पूर्वावस्थ अवगाहना विषइ ९, पूर्वावस्थ अंतर वियइ १०, पूर्वावस्थ संख्या विषइ ११ सिद्धहं रहई अल्पबहुत्व भावना कहिवी।५। $412) अथ पहिल क्षेत्र विषइ कहियइ । मनुष्यक्षेत्रहीं जि हूंती मुक्ति हुयइ । तत्रापि एकि संहरण वशइतउ स्वक्षेत्रइतउ परक्षेत्रि 20 वत्तेमान मुक्तिई जाई एकि स्वक्षेत्रिहि जि वत्तेमान मुक्तिई जाई । तथा एकि ऊध्वि गिरि मस्तकादि वर्तमान मुक्तिई जाई । पकि हेठइ गिरि विवर कूप कुहरादिकि स्थानि वर्तमान मुक्तिई जाई । तथा तिर्यग् एकि समुद्रि जायता मुक्तिई जाई । एकि द्वीपि जायता मुक्तिई जाई । तउ संहरणि करी परक्षेत्रसिद्ध थोडा। स्वजन्मोपलक्षित क्षेत्रसिद्ध तीहं कन्हा असंख्यातगुण । तथा ऊर्ध्व सिद्ध थोडा तीहं कन्हा 25 असंख्यातगुण अधः सिद्ध । तथा तिर्यक् समुद्रसिद्ध थोडा तीहं कन्हा द्वीपसिद्ध असंख्यातगुण । इति क्षेत्रविषइ सिद्धहं तणी अल्पबहुत्वभावना भणी । $413) अथ कालविषइ कहियइ । उस्सप्पिणि ओसप्पिणि कालो भरहाइ दससु वित्तेसु । अनुभयरूवो कालो सेसम्मि य मणुयखित्तमि ।। [५७६] 30 इसा वचनइतउ । एकु उत्सपिणी कालु । एक अवसपिणी कालु । एक अनुभयरूपु कालु। तत्र भरतादिकहं दसहं क्षेत्रहं उत्सर्मिपणी अवसपिणी लक्षणु उभयरूपु कालु वर्तइ । सेस मनुष्यक्षेत्र महाविदेह पंचकादिक माहि अनुभयरूपु कालु वर्त्तइ।। तत्रापि एकि उत्सपिणी सिद्ध । एकि अवपिणी सिद्ध पकि अनुभयसिद्ध । तत्र उत्सप्पिणी सिद्ध थोडा । तीहं कन्हा अवपिणी सिद्ध विशेषाधिक । तीहं कन्हा अनुभयसिद्ध असंख्यात गुण । 35 पति कालविषइ सिद्ध नी अल्पबहुत्व भावना भणी। 1414) अथ गति विषइ भणियइ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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