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________________ 5 १४० पढावश्यक वालावबोधवृत्ति [5106-109 ) ५७२-५७४ गणाई नहीं वे तिणि कारणि असंख्यात तिणि कारणि एकही सिद्ध रहई लोकाकाश असंख्यात भाग फरसना । अनइ सर्व सिद्धहं रहई पुण लोकाकाश असंख्यातभाग फरसना ॥ इति क्षेत्रस्पर्शनारूपु त्रीजउ मोक्षतत्त्वभेदु ३ । (406) 'कालो थ ' इति । एक सिद्ध नी अपेक्षा करी सादि अपर्यवसितु कालु सिद्ध तगड छइ । सर्व सिद्ध नी अपेक्षा करी अनादि अपर्यवसितु कालु सिद्धहं तणउ छइ । नहि सु को कालु छ जिणि सिद्ध नथी सिद्धगति रहई अनादिता भावइतर । इति कालरूपु । चउथउ मोक्षतत्त्व भेदु ४ । (407) अंतरमिति । पंचेतालीस लक्षयोजनप्रमाण मंडलाकाराऽयामविक्खंभ एक योजन चवीसां सप्रमाणपिंड सिद्धक्षेत्र माहि सर्वत्र सिद्धावगाहना भावइतर सिद्धहं रहईं परस्परईं अंतरु 10 नथी । इति अंतररूपु मोक्षतत्त्व भेदु पांचमउ ५ । $408) भागेति । चह अनंता जीवा उवरि उवरि अनंतगुणियाओ । अभविय सिद्धा भविया जाईभन्दा वत्थाओ ॥ [ ५७२ ] इसा वचनइत उं भेदे अनंतजीव उपरि उपरि अनंतगुणित हुयई । यथा अभव्य अनंत 15 सिद्धू अनंत भव्य अनंत जातिभव्य अनंत तत्र अभव्यस्तोक | किसउ अर्थु जघन्ययुक्तानंतकाभिधान चतुर्थअनंत संख्या भेद समान । तथा च भणितं - 'थोवा जहन जुत्ताणं तय तुल्ला य ते अभव्व जिया' इति । तीहं कन्हा सिद्ध अनंतगुण । तीहं कन्हा भव्य अनंतगुण छ । सि पुण निर्वाणगमन योग्य जीव कहियई । तीहं कन्हा जातिगुण भव्य अनंतगुण छ । ति घुण जाति करी भव्य छई मुक्ति पुण 20 कदाकालिहिं नहीं जाई । तथा च भणितं - सामग्ग अभावाओ बवहारियरासि अप्पवेसाओ | भव्वा ते अनंता जे मुत्तिमुहं न पाविंति ॥ [ ५७३ ] जमुक्ति नहीं जाई तउ भव्य किम कहियई । मुक्तिगामियांई जि रहई भव्यता भणनइतर | जिम मलयाचलगत सार चंदनदारु संभार ईहां आवई सूत्रधार हाथि चडई तर तीहं हूंती जिनप्रतिमा 25 घडई, न ईहां ति आवई न प्रतिमा घडई, पुण योग्यता लगी तिहां ई जि छता ति चंदन संभार जिन प्रतिमाई कहियई । तिम जातिभव्य पुण जइ ईहां व्यवहारराशि माहि आवई सुगुरु समायोगु लहई त ति पुणि मुक्तिदं जाई न ईहां व्यवहारराशि माहि आवई न गुर्वादि सामग्री लहई नति 'ई। किंतु व्यवहारराशि माहि अनादि अनंतकाल लगी छताई योग्यताई' जि लगी भव्य कहियई । तिणि कारणि भव्यहं अनह जातिभव्यहं तणइ अनंतमइ भागि सिद्ध छई । इति भागरूपु 30 छड्डउ मोक्षतत्त्वभेदु ६ । अथवा Jain Education International जझ्या पुच्छा होही जिणिंद समयमि उत्तरं तइया । erra निगोयस्य प्रणताभागो न सिद्धिगओ ॥ [ ५७४ ] इसा वचनइत एक निगोद जीवहं तणइ अनंतमइ भागि सिद्ध छई इति भागरूपु छट्टउ मोक्षतत्त्वभेदु ६ । 35 5409) भावेति क्षायिक पारिणामिक लक्षणह बिहुं भावहं वर्त्तमान सिद्ध छ । ' मुक्खो कम्माभावो', इसा वचनइतर सिद्वहं रहइ कर्मतणु अभावुछइ । तउ पाछइ कमादाय करी निष्पन्न औदायिक भावु कहियइ | (408) 1. Bh. मुक्तिई। 2 Bh मुक्ति । 3. Bh. योग्यता awdomits - ई जि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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