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________________ 10 $403 ). ५५२-५५७] श्रीतरुणप्रभाचार्यकृत तेहे12 मनःपर्याये करी चिंतनीउ जु मूर्त स्तंभकुंभादिकु वस्तु छइ सु वस्तु मनःपर्यायज्ञानी अनुमानि करी जाणइ । मन तणा पर्याय साक्षात्कार देखइ। इसइ परिणामि परिणत मनोद्रव्य तउ हुयई जउ इसउं वस्तु एहे चीतविउं हुयइ इसी परि जिम लेखाक्षर दर्शनइतउ लेखार्थ परिज्ञानु हुयइ तिम मनोद्रव्यदर्शनइतउ चिंतनीयवस्तु अनुमिणइ सु इउ बाह्यू अनइ आभ्यंतर विष उ बहुतर स्फुटतर विशेष जोगि करी विपुलमति रहई विपुलतरु जाणिवउ इति मनःपर्यायज्ञान विचारः। केवल एकु ज्ञान केवलज्ञान कहियइ । तेह नइ भावि छद्मस्थ सर्वज्ञ ज्ञानदर्शन तणा अभावत जिम सूार्य अगिइ अनेरा ग्रह नी प्रभा न हुयइंतिम केवल ज्ञान तणइ उदइ अनेरा ज्ञान नी प्रभा न हुयई॥ 'उप्पन्नंमि अणंते नटुंमि य छाउमथिए नाणे' इति वचन भावइतउ ॥ इति केवलज्ञानविचारः। मिथ्यादृष्टि तणां मतिज्ञानु श्रुतज्ञान अवधिज्ञानु । मत्यज्ञानु १, श्रुताज्ञानु २, विभंगावधि ज्ञानु ३, इसी परि त्रिन्हइ अज्ञान कहिथई । तथा दसण ईहां चत्तारि कहियई : यथा चक्षुदर्शनु १ अचक्षुदर्शनु २ अवधिदर्शनु ३ केवलदर्शनु ४ ति पुणि कहीसिइ । एतलइ नाणं पंचविहं तह अन्नाणतिगति अट्र सागारा। चर दंसणमणगारा वारस जिय लक्षणोवओगा॥ [५५२] 15 इति द्वादश संख्य जीवलक्षणोपयोग जीवतत्त्व परिज्ञानकारण पुणि प्रसंगिहिं भणिया। गतं ज्ञानद्वारं । ज्ञानप्रसंगि दर्शनद्वारं च। अथ संजमभेद लिखियई। संजम सामायिकादिक ५ पूर्विहिं जिम भणिया तिमहीं जि जाणिवां। संजमशब्दि करी संजमप्रतिपक्षु असंजमु पुणि देशविरतिसंजम पुणि जाणिव । 20 अथ लेश्या लिखियई। कृष्ण नील कापोत तेजः पद्म शुक्लरूप कर्मपुद्गलोदयवशइतउ जीव रहई स्फटिक जिम तथा परिणामतारूप छ लेश्या कहियई॥ यथा । कृष्णलेश्या १ नीललेल्या २ कापोतलेश्या ३ तेजोलेश्या ४ पद्मलेश्या ५ शुक्ललेश्या ६। तथा च भणितं - कृष्णादि द्रव्यसाचिव्यात्परिणामो य आत्मनः। स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्याशब्दः प्रवर्तते ॥ प्रसंगिहिं लेझ्याविषइ उदाहरण लिखियई। जह जबुतरुवरेगो सुपक्क फलभार नमिय साहग्गो । दिट्ठो छहिं पुरिसेहिं ते चिंती जंबु भक्वेमो ॥ [५५४ ] किह पुण ते चिंतिको आरुहमाणाण जीवसंदेहो । 30 तो छिंदिऊण मूले पाडेडं ताई भवखेमो ॥ [५५५] बीयाऽऽह इद्दहेणं किं छिन्नेणं तरूण मम्हति । साहामहल्लछिंदह तइओ बेइ पसाहाओ॥ [५५६] गुच्छे चउत्थओ पुण पंचमओ बेइ गिन्हफलाई । छट्टो वेई पडियाई एइञ्चिय खायहाच्छित्तुं ॥ [५५७] 35 25 [५५३] 40:3 )12 Bh. तेह । 13 Bh. omits. घ. बा. १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003394
Book TitleShadavashyaka Banav Bodh Vrutti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabodh Bechardas Pandit
PublisherBharatiya Vidya Bhavan
Publication Year1976
Total Pages372
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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