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षडावश्यकबालावबोधवृत्ति
18403). ५५१ चत्तारि व्यंजनावग्रह तणा भेद इति अट्ठावीस भेव ।
अर्थ श्रुतज्ञानभेद लिखियई।
अक्षरश्रुतु १, अनक्षरश्रुतु २, सादिश्रुतु ३, अनादिश्रुतु ४, सांतुश्रुतु ५, अनंतुश्रुतु ६, गमिकुश्रुतु ७, अगमिकुश्रुतु ८, अंगप्रविष्टश्रुतु ९, अनंगप्रविष्टुश्रुत १०, सम्यक्श्रुतु ११, असम्यक्श्रुतु १२, संक्षिश्रुतु १३. 5 असंनिश्रुत १४। तथा च भणितं
अक्खर सन्नी सम्म साईयं खलु स पज्जवसियं च । गमियं अंगपविटुं सत्त वि एए स पडिवक्खा ॥
[५५१] तत्र अक्षर श्रवण दर्शनहं करी अर्थप्रतीति निमित्तु अक्षरश्रुतु १। शिरःकंप हस्तचालनादि संज्ञा विशेष भावइतउ हकारई छई निवारइ छइ इसी परि जु बुद्धि निमित्तु सु अनक्षरु श्रुतु २ । सम्यक्त्वलाभा
हतउ सम्यग्दृष्टि रह ज्ञानात्मक सादिश्रुतु ३ । अज्ञानात्मक सम्यक्त्वभ्रष्ट मिथ्यादृष्टि रह सादिश्रुतु ३। अलब्धसम्यक्त्व मिथ्यादृष्टि रहइं अज्ञानात्मकु अनादिश्रुतु ४ । सांतु सपर्यवसितु भव्यहं रहई केवलज्ञानानंतरु पर्यवसानभावइतउ स पर्यवसितुश्रुतु ५। अभव्यहं रहई अपर्यवसितुश्रुतु ६ । केवलज्ञान संभव तणा भावइतउ अनंतुश्रुतु पुणि तेऊ जु ६ । अनेरइ अनेरह अर्थि तेई जि जि अक्षर जिहां हुयइ सु गमिकुश्रुतु ७, असदृशाक्षरु अगमिकुश्रुतु ८, आचारांगादि अंगप्रविष्टु ९ श्रुतु । प्रकीर्णकादि अनंगप्रविष्टु १० 15 श्रुतु । सम्यग्दृष्टि रहहं जिनप्रणातु अथवा मिथ्यात्वि प्रणीतु सर्व श्रुतु सम्यग्श्रुतु ११ । तेऊ जु मिथ्यादृष्टि रहई जिनप्रणीतु अथवा मिथ्यात्वि प्रणीतु सर्वश्रुतु असम्यक्श्रुतु १२ । समनस्क पंचेंद्रिय रहई मनः सहित इंद्रियहं करी जनितु श्रुतु संनिश्रृतु १३ मनोरहित इंद्रिय जनितु तेऊ जु असंक्षिश्रृतु१४इति श्रुतज्ञानभेद १४।
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अथ अवधिज्ञानभेद लिखियहं । अवधिज्ञानु छए भेदे । यथा
अनुगामि लोचन जिम १ । अननुगामि स्थानस्थदीप जिम २ । अवस्थितु अप्रतिपात स्वभावु आदित्यमंडल जिम ३ । लवणसमुद्रवेला जिम जु प्रतिपतइ सु अनवस्थितु ४। जु अंगुलासंख्ययभाग क्षेत्रविषइ ऊपजी करी विशुद्धि प्रकर्षानुसारि जां लोकु तां देखइ पुनरपि संक्लेश वशइतउ क्षइ जाइ सु हीयमानु । जिणि अलोकगतु एकू प्रदेशु दीठउ सु क्षय न जाई ५। जु अंगुलासंख्येयभागादि विषइ ऊपजी करी पुनरपि वृद्धि विषई विस्तारात्मिक जाइ जां लोक प्रमाण असंख्यात अलोकाकाश खंड देखइस 26 वर्द्धमानकु ६ इति अवधिज्ञान तणा छ भेद ।
___ मन रहई इणि करी आत्मा पयति जाणइ इणि कारणि मनःपर्यायज्ञानु कहियइ । म ऋजुमति विपुलमति नामहं करी द्विधा हुयइ । तत्रा ऋजु पाधरी साक्षात्कृत अन अनुमित जि छइं अर्थ तीहं नइ विषइ अल्पविशेष विषयता करी मुग्धमति विषय परिच्छित्ति जेह रहइं हुयइं सुऋजुमति कहियइ । तेह हूंती इतर विपुल बहुतर विषय परिच्छित्ति करी मति जेह रहई हुयह सु विपुलमति कहियइ । तत्र ऋजुमति रहई 30 अढाई आंगुलहं करी ओछउ मनुष्यलोकु क्षेत्राइतउ विपउ। तेऊ जु मनुष्यलोकु विपुलमति रहइं संपूर्ण निमलतरु विषउ । कालइतउ एतला क्षेत्रा" माहि भूतभावि संज्ञि मनोरूप मनाद्रव्य पल्यापमा संख्ययभाग सीम देखइ द्रव्यात उ तेई जि मनोद्रव्य देखइ । भावइतउ तीहं तणां पर्याय चिंतानुगुण परिणामरूप ऋजुमति रहई विषउ।
9 Bh. विषय ।
403) 6 B. omits.
10 Bh. omits.
7 Bh. आकारइ। 8 Bh. adds अथवा। 11 Bh. adds f993 1
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