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________________ [ ३७ ] युक्त बोल-चाल की भाषा है । स्थान-स्थान पर अरबी व फारसी के शब्दों का प्रयोग भी मिलता है । कथा की शैली में सबसे बड़ी खूबी राजस्थानी के ठेट मुहावरों का सफल प्रयोग है । अतः कुछ मुहावरे यहां द्रष्टव्य हैं : "भलो नहीं प्रापने, तिको दीजे काळा सांप ने । एस साख पतळी हुई ने घर माहे उंडो तेह नहीं। जाडो जीमतां पतली जीमस्यां । चोपड़ी जीमतो लूखी जीमस्यां । बोहर पालूं । वात धुरा मूल सूं कही। मोसूं लाल पाल करणो। जीमण सू देखणो भलो। बुरो चाहे तो भलो होवे नहीं। उपसंहार प्रस्तुत संग्रह की पांचों बातें मूलतः प्रेमविषयक होते हुए भी अनेक प्रकार की विभिन्नतायें लिए हुए हैं। अतः न केवल साहित्यिक दृष्टि से अपितु समाजशास्त्र व भाषाविज्ञान की दृष्टि से भी इनका बड़ा महत्व है। राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर के मान्य अधिकारी-गण इस प्रकार के साहित्य-संग्रह प्रकाशित कर राजस्थानी-साहित्य की अमूल्य निधियों को प्रकाश में लाने का प्रशंसनीय कार्य कर रहे हैं उसके लिये वे बधाई के पात्र हैं। मेरे प्रिय मित्र श्रीलक्ष्मीनारायणजी गोस्वामी ने इन कथाओं को संपादित करने में बड़ा श्रम किया है। अनेक प्रतियों के पाठान्तर तथा विस्तृत परिशिष्ट दे कर पुस्तक को साधारण पाठक व विद्वद्वर्ग, दोनों के लिए उपयोगी बना दिया है। उनकी इस साहित्य-साधना के लिये बधाई तथा मुझे इस पुस्तक की भूमिका लिखने का अवसर प्रदान करने के लिये धन्यवाद । नारायणसिंह भाटी संचालक राजस्थानी शोध संस्थान, जोधपुर जोधपुर. बसंत पंचमी, १९६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003392
Book TitleRajasthani Sahitya Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Dixit
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1966
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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