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________________ २५४ ] परिशिष्ट ३ रतन कचोलो रूवडो, सो लागो पाथर फूट बे। जिण जिण प्रागल ढोईयो, केसर बोटी काग बे।। -१२५.२७५ रतनावत दिल रोसमै, प्रोहित चले प्रयाण । बचन बचन बांधो बिथा, जग्यो अग्नि घ्रत जाण ।। -३१-२३९ रयणी दुषको राश भी, भरसी गुण संताप। ढोली सहु ढीली पडी, जावो कलेजा कांप ॥ -१०१-१६१ रषीयो इंदर रांगीए पकड नठारां। -१७२-नी० रस रमतां मैहलां विषे, चोपड पासा सार। ते छोडी घर पाथरचा, सीस घड जूषा वार ॥ - १०८-१६४ रहो रहो केथ प्रणभावना, प्रणहुंती कहिताह। हीवर्ड हार अलूझियो, सो सूलझायो नेणाह ।। -१२४-२७४ रहो रहो गुरजी मूढ कर, कहा सिखावत मोय । सत(ब) पृते इण नगरमें, जागत विरला कोय ।। – १५८-४५ राषीज षांवंद सरस, नाजक धण रा नेम।। प्रांग दुषी प्यारी तणो, कोज अप्ति हठ केम ।। -४८-३७० राज कीयो छै रुसणो, ऊर मो दहत कदोत । पाप न मानो मो प्ररज, मरूं कटारी मोत ।। ---४८-३६८ राज सरीषा प्राहुणा, चले न मावे कोय । मिलीया दुष गलीया सहु, जूगत थई सहु जोह ॥ -१३५-३१६ राजा बंद बुलायक, कुवर देषाई बांह। वंदां वेदन का लही, करक कलेजा माहि ।। -१५१-१८ राते करहा उछरे, दीहां उतारा होय।। मारू मूध कटारीयां, घर क्यू धोरडा होय ॥-१२१-२६० रावत भिडियां वांकडा, ताहरा हाथ सलूर ।। मो निगुणीकै कारणे, काया कोधी दूर ।।-१०८-१८८ राम सरीसा भोगव्या, वार घरस धनवास । तो हुँ गीणती केतली, दईव लिष्या ते पास ।। -१०७.१८५ रीसालू कुंवरने छोडने, क्यू जाये घर और बे। पर पूरषां सू नेहडो, किम कीजै निज जोर बे॥-६३-१३३ रूडा राजिव जांणज्यौ, मंझने चूक न कोय । ने हूं जांणती मारीयो, तो हुं करतो वोय ॥ -१०-१९७ रंग ज्यालरा व्यापगत, रात वख्यात ऊमंत । चंद गिगन ऊडन चमक, संजोगण हुलसंत ।। ---४४.३१० रंडी भंडी ते करी, मांण मूकायो मोह । षार दीयो मूझ छातीयां, भली करी मूझ दोह ॥ -११६-२०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003392
Book TitleRajasthani Sahitya Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Dixit
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1966
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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