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________________ २५० ] परिशिष्ट ३ देषत घुघट प्रोट दे, बंको द्रगनि बिसाल । लोन बसंत गुलालमैं, लसत अंग छवि लाल ॥ --४४-३१५ देषो हुंती दस मासनी, पाली किण विध पोष बे। हिष परघर मंडप करी, अस्त्री जातरी प्रोष बे।। १०४-१७० बोढी कर दो दूर, १७६-७३ धण वण प्राव ढोलीय लगथगथी लारां ॥ -१७२-४६ नों० धवळा बाल न वाढ, नागरवेल न चढीये । चंप पली चाढ, फूल बिलंब्यो भंवरलो ।। -१५४-३२ नष अंगूठे अंगूली, भरीयो कलस अभ्रूग । प्रजेयस मारू साहिबो, बोले नहीं प्रो वूग ।। -११२.२१७ नर-नारी पौठा नषंग, तीषा वं तोषार । -१८४-१३७ नवमी प्रा वैरण नदी, १७८-८६ नवल सनेह पीहर तणों, पीण सासरीयों परधान । सासरीयो जुग-जुग तणो, सूष पीहर उनमान बैं॥-६४-४० नही घोडा रथ उंटीयां, हाथी ने सूषपाल । चाकर-बाबर को नही, ए नृप केहा हपाल ।। १०४-१७३ नागजी नगर गयांह, मन-मेळू मिलीया नहीं। मिलीया प्रवर घणांह, ज्यांसुं मन मिलीया नहीं ॥ --१५१-५७ नागड़ा नवखंडेह, सगपण घणांई तेडोये। भुय ऊपर मुँचताह, मिलतां ही मरजै नहीं ॥ १६२-७३ नागड़ा नवलो नेह, नोज किण ही सु लागजो। जल सुरंगी देह, धुखै न धुंवो नीसरे ॥ -१६१-६५ नागड़ा नवलो नेह, जिण-तिणसू कीजे नहीं। लीजे परायो छेह, प्रापणो दीजे नहीं ॥ --१६१.६४ नागड़ा निरख देस, एरंड पाणों थपीयो। हंसा गया विदेस, बुगला होसु बोलणो॥-१५७-३१७ नागा खायजो नाग, काला करई महिलो। मुंवो न मिलज्यो माग, जांवतडे जगाई नहीं।। -१५५-३५ नार पराई विलसतां, कांटा पूर तूटाय थे। सीस साई जब बीजिये, मीच पडे सूचि काय बे॥ --१०१.१६४ नारी न जाण्यो मापरी, जगमें न र॑णी कोय । मूगस मरावं हाथसू, पाछसू सतो होय ॥-१११-२१२ नारी नहीं का प्रापरी, पूठ पराई थाय। जो हित तन-मन वीजता, पिण न पतिज जाय ॥ ११८-२४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003392
Book TitleRajasthani Sahitya Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshminarayan Dixit
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1966
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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