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ने नायक को निश्चित स्थान व समय पर उसकी प्रेमिका से उसे मिलाया हो नहीं, अपितु सब की प्रांख में धूल झोंककर सुरक्षित स्थान पर भी पहुंचा दिया।
स्वजातीय प्रेमी-प्रेमिका के बीच में जहां घरेलू व्यवधान, प्रेम-तत्त्व को प्रगाढ़ता प्रदान करते हैं वहाँ विजातीय नायक-नायिका के बीच समाज का व्यवधान चित्रित किया गया है। परंतु सच्चे प्रेम के सामने दोनों ही प्रकार के व्यवधान अन्ततः बालू की दीवार की तरह ढह पड़ते हैं । नायक-नायिका का मिलन चाहे विधिवत् रूप से विवाह मंडप के नीचे न हो, अथवा कुसुम शैया पर निश्चित रूप से पौ फट जाने तक संभोग का आनन्द लेने का अवसर उन्हें भले ही न मिला हो, परन्तु श्मसान की भूमि में आकर उनके चिरमिलन में संसार की कोई भी ताकत व्यवधान नहीं बन सकी। यह अलग बात है कि शिव-पार्वती की किसी प्रेमी-युग्म पर कृपा हो जाय और वे पुनर्जीवित होकर सामाजिक नियमों की पराजय से निर्मित गौरव महल में फिर से प्रेम-क्रीड़ा करने लगे।
नायक-नायिका के प्रेम को चरम सीमा तक पहुंचाने के लिए अनेक प्रकार के व्यवधानों का वर्णन तो किया ही गया है परन्तु इसके साथ-साथ नायिका के प्रेम को औचित्य प्रदान करने के लिए जहाँ च्युत नायक के बुद्धपन तथा कुरूपता, कायरता आदि का हास्यास्पद वर्णन किया गया है वहाँ शौर्य आदि का उत्कर्ष न केवल नायक तक ही सीमित रहा है, वह नायिका के चरित्र में भी प्रकट किया गया है । कुसुमादपि कोमल सुकुमारी अपने प्रेमी से मिलने के लिए मेघों से आच्छादित तिमिराच्छन्न रात्रि में अपने घर से बाहर निकल पड़ना साधारण सी बात समझती है और रास्ते में आने वाले किसी वन्य पशु व दुश्मन की हत्या करने में तनिक भी नहीं हिचकिचाती है । - प्रेम करना कोई हंसी-खेल नहीं है । इसमें जितने साहस की आवश्यकता है उतनी चतुराई की भी। अनेकों बार ऐसी परिस्थितियां आ जाती हैं जिनमें नायक-नायिका का बातचीत करना संभव नहीं होता, तब संकेतों के सहारे हृदय की मूक-भाषा में संवाद संपन्न होते हैं । कहीं परिस्थिति कुछ अनुकूल-सी लगी तो लाक्षणिक काव्य-पद्धति उन्हें सहयोग दे जाती है।
अधिकांश प्रेम-चित्र यौवन के उद्दाम क्षितिज पर चित्रित हैं। जिनमें काम की लालिमा पर सुखद संभोग के अनेक इन्द्रधनुष तैरते हुये दिखाई देते हैं।
त्रिया में धूर्ततापूर्ण चरित्रों को चित्रित करने की दृष्टि से लिखी गई कथाओं में प्राय: जादू, टोना, निम्न कोटि की सिद्धियां, भूत-प्रेतों व पाखण्डी
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