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________________ १६ मध्ये सिंहासनमनुपमं तस्य शक्रासनाभं चेतश्चैतत्सुखयति सतां हृद्यपद्यानुकारम् । सालङ्कारं सुघटितमहासन्धिबन्धं सुवर्णं स्वच्छच्छायं सुललितचतुष्पादसम्पन्न शोभम् ॥ १०६ ॥ दीप्रोपान्तः ः स्वसदृशरुचा पादपीठेन नम्र क्ष्माभृच्छ्रेणी मुकुटघटनाको मली भूतधाम्ना । पङ्क्त्योडूनामिव गुणयुजा मौक्तिकस्वस्तिकेन व्योम्नो लक्ष्मीं किल निदधतोपेन्द्रपादाचितेन ॥ १०७ ॥ यहां से आगे, १४ काव्यों का एक कुलक है, जिस में आचार्य के गुणों की खूब प्रशंसा की गई है और चंद्र से कहा है, कि तूं उस उपाश्रय में जा कर व्याख्यान - मण्डप के सुवर्ण सिंहासन पर बैठे हुए ऐसे महान् और प्रभावक आचार्य के दर्शन और वन्दन कर कृतार्थ होना | आचार्य की प्रशंसा में लिखे हुए ये काव्य बहुत ही उत्तम और एक जैनाचार्य के उच्च गुणों का खयाल कराने वाले हैं । तत्रासीनं परिणततपस्तेजसा पीतमन्तः - शुक्लध्यानोद्भवन वमहोद्योतितात्मस्वरूपम् । साक्षात्तर्थिंकरमिव जगज्जन्तु जीवातुभूतं मूर्त्या शान्ताद्भुतमधुरया दत्तभव्य प्रमोदम् ॥ १०८ ॥ * * * * * विद्यावद्भिः सुभगतनुभिश्चारुचारित्रचर्यैः श्रीगुर्वाज्ञा विनयनिपुणैः सेवितं साधुवर्यैः । श्रद्धालूनां पृथुपरिषदि प्रौढधान्ना निषण्णं * त्रायत्रिरिव परिगतं संपदीन्द्रं सुराणाम् ॥ १२० ॥ वन्देथाः श्रीगणपति सार्वमैदंयुगीनं पीनं पुण्यप्रचयमुदधेर्नन्दन ! त्वं लभेथाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003389
Book TitleVignaptitriveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1916
Total Pages180
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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