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________________ १४६ आवश्यक-मूलसूत्रम् -२-४/२३ अभिओगेण वा विसेण वा, जइ विसेण आभिओगियं वा वत्थं पायं वा खंडाखंडिं काऊण विगिंचियव्वं, सावणा य तहेव, जानि अइरित्ताणि वत्थपायाणि कालगए वा पडिभगो वा साहारणगहिए वा जाएज एत्थ का विगिंचणविही?, चोयओ भणइ-आभिओगविसाणं तहेव खंडाखंडिं काऊण विगिचणं मूलगुणअसुद्धवत्थस्स एवं वंकं कीरइ, उत्तरगुणअसुद्धस्स दोन्नि वंकाणि, सुद्धं उजुयं विगिंचिजइ, पाए मूलगुणऽसुद्धे एगं चीरं दिज्जइ, उत्तरगुणअसुद्धे दोन्नि चीरखंडाणि पाए छुब्भंति, सुद्धं तुच्छं कीरइ-रितयंति भणियं होइ, आयरिया भणंति-एवं सुद्धपि असुद्धंभवइ, कह?, उज्जुयं ठवियं, एगेण वेकेण मूलगुणअसुद्धं जायं,दोहिंउत्तरगुणअसुद्धं, एकवंकं दुवंकं वा होजा दुवंकं एकवंकं वा होजा, एवं मूलगुणे उत्तरगुणो होज्जा उत्तरगुणेवामूलगुणो होजा, एवं चेव पाएवि होजा, एगं चीवरं निग्गयं मूलगुणासुद्धं जायं, दोहिं विणिग्गएहिं सुद्धं जायं, जे य तेहिं वत्थपाएहिं परिभुंजिएहिं दोसा तेसिं आवत्ती भवइ, तम्हा जं भणियं ते तं न जुतं, तओ कहं दाउं विगिंचियव्वं ?, आयरिया भणंति-मूलगुणे असुद्धे वत्थे एगो गंठी कीरइ उत्तरगुणअसुद्धे दोन्नि सुद्धे तिन्नि एवं वत्थे, पाए मूलगुणअसुद्धे अंतो अठ्ठए एगसहियारेहा कीरइ, उत्तरगुणअसुद्धे दोन्नि, सुद्धे तिनिहाओ, एवं नायं होइ, जाणएण कायव्वाणि, कहिं परिट्टवेयव्वाणि ?-एगंतमनावाए सह पत्ताबंधरयत्ताणेण, असइ पडिलेहणियाए दोरेण मुहे बज्झइ, उद्धमुहाणि ठविजंति, असइ ठाणस्स पासलियं ठविजइ, जओ वा आगमो तओ पुष्फयं कीरइ, एयाए विहीए विगिंचिज्जइ, जइ कोइआगारो पावइतहाविवोसठ्ठाऽहिगरणा सुद्धासाहणो,जेहिंअन्नेहिंसाहहिं गहियाणिजइकारणे महियाणि ताणि य सुद्धा जावज्जीवाए सुद्धा साहुणो, जेहिं अन्नेहिं साहूहिं गहियाणि जइ कारणे गहियाणि ताणि य सुद्धा जावज्जीवाए परिभुजंति, मूलगुणउत्तरगुणेसु उम्पन्ने ते विगिंचइ, गतोपकरणपारिस्थापनिका, अधुना नोउपकरणपारिस्थापनिका प्रतिपाद्यते, आह च नोउवगरणेजासा चउब्विहा होइआनुपुवीए | उच्चारे पासवणे खेले सिंधाणए चेव ।।८०॥ वृ-निगदसिद्धैव, विधि भणति उच्चारंकुव्वंतो छायं तसपाणरक्खणट्ठाए । कायदुयदिसाभिग्गहे य दो चेवऽभिगिण्हे । ८१॥ पुढविंतसपाणसमुट्ठिएहिं एत्थं तुहोइ चउभंगो । पढमपयं पसत्थं सेसाणि उ अप्पसत्याणि ।।८२॥ इमीणं वक्खाणं-जस्स गहणी संसज्जइतेन छायाए वोसिरियव्वं, केरिसियाए छायाए?-जोताव लोगस्स उवभोगरुक्खो तत्थ न वोसिरिजइ, निरुवभोगेवोसिरिजइ, तत्थवि जासयाओ पमाणाओ निग्गया तत्थेव वोसिरिजइ, असइ पुणनिग्गयाएतत्थेव वोसिरिजइ असति रुक्खाणं कारणंछाया कीइतेसु परिणएसु वच्चइ, काया दोन्नि-तसकाओ थावरकाओ य, जइ पडिलेहेइवि पमज्जइऽवि एगिदियावि रखिया तसावि, अह पडिलेहेइ न पमज्जइ तो थावरा रक्खिया तसा परिचत्ता, अह न पडिलेहेइपमाइथावरा परिचता तसारक्खिया,इयरस्थ दोविपरिचत्ता, सुप्पडिलेहियसुप्पमज्जिएसुवि पढम पयं पसत्यं, विइयतइए एक्के क्केण चउत्थं दोहिवि अप्पसत्थं, पढमं आयरियव्वं सेसा परिहरियव्वा, दिसाभिगहे. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003377
Book TitleAgam Sutra Satik 40 Aavashyak MoolSutra 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Shrut Prakashan
Publication Year2000
Total Pages808
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 40, & agam_aavashyak
File Size16 MB
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