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अष्टमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
७४७ उदा०-अग्निचित्षण्ड: । अग्निचित् नपुंसक है। भवान् षण्डः । आप नपुंसक हैं। महान् षण्ड: । बड़ा नपुंसक।
सिद्धि-अग्निचित्षण्डः । यहां अग्निचित् के तकार को षण्ड के षकार के योग में इस सूत्र से टवर्ग आदेश का प्रतिषेध होता है। 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से टवर्ग आदेश प्राप्त था। अत: इस सूत्र से प्रतिषेध किया गया है। ऐसे ही-भवान् षण्डः, महान् षण्डः । उक्तप्रतिषेधः
(५) शात् ।४३| वि०-शात् ५।१। अनु०-संहितायाम्, न, तोरिति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायां शात् तोर्न ।
अर्थ:-संहितायां विषये शकारात् परस्य तवर्गस्य स्थाने यदुक्तं तन्न भवति। 'स्तो: श्चुना श्चुः' (८।४।३९) इति चवदिशो न भवतीत्यर्थः।
उदा०-प्रश्न: । विश्न:।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (शात्) शकार से परवर्ती (तो:) तवर्ग के स्थान में (न) जो कहा है, वह नहीं होता है, अर्थात् 'स्तो: श्चुना श्चुः' (८।४।३९) से प्राप्त चवर्ग आदेश नहीं होता है।
उदा०-प्रश्न: । पूछना। विश्न: । गति करना।
सिद्धि-प्रश्न: । यहां प्रछ ज्ञीप्सायाम् (भ्वा०प०) धातु से 'यजयाचयतविच्छप्रच्छरक्षो नङ् (३।३।९०) से नङ्' प्रत्यय है। 'छ्वो: शूडनुनासिके च' (६।४।१९) से छकार को शकार आदेश है। प्रश्+न, इस स्थिति में इस सूत्र से शकार के योग में तवर्ग नकार को चवर्ब जकार आदेश का प्रतिषेध होता है। विछ गतौ' (तु०प०) धातु से-विश्नः। अनुनासिकादेशविकल्प:
(६) यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा ।४४। प०वि०-यर: ६।१ अनुनासिके ७१ अनुनासिक: १।१ वा अव्ययपदम्।
अनु०-संहितायाम् इत्यनुवर्तते। 'न पदान्ताट्टोरनाम्' (८।४।४१) इत्यस्माच्च पदान्तादिति मण्डूकोत्प्लुत्याऽनुवर्तनीयम्।
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