________________
७२१
अष्टमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
७२१ णकारादेशः
___ (१६) अनितेरन्तः ।१६। प०वि०-अनिते: ६।१ अन्त: ११ (सप्तम्यर्थे)। अनु०-संहितायाम्, रषाभ्याम्, न:, ण:, उपसर्गादिति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायाम् उपसर्गस्य रषाभ्याम् अन्तोऽनिते! णः।
अर्थ:-संहितायां विषये उपसर्गस्य रेषकाराभ्यां परस्य पदान्ते वर्तमानस्याऽनितेर्नकारस्य स्थाने णकारादेशो भवति ।
उदा०- (अन्) प्र-हे प्राण ! परा-हे पराण् ! ।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (उपसर्गस्य) उपसर्ग के (रषाभ्याम्) रेफ और षकार से परवर्ती (अन्तः) पद के अन्त में विद्यमान (अनिते:) अनिति अन् धातु के (न:) नकार के स्थान में (ण:) णकार आदेश होता है।
उदा०-(अन्) प्र-हे प्राण ! हे जीव ! परा-हे पराण ! हे निर्जीव !
सिद्धि-प्राण ! यहां प्र-उपसर्गपूर्वक 'अन प्राणने (अदा०प०) धातु से 'क्विप् च' (३।२।७६) से 'क्विप्' प्रत्यय है। 'क्विप्' प्रत्यय का सर्वहारी लोप होता है। इस सूत्र से प्र-उपसर्ग के रेफ से परवर्ती तथा अट्-व्यवायी (अ-अ) 'अन्' धातु के नकार को णकार आदेश होता है। न डिसम्बद्ध्योः ' (८।२८) से सम्बुद्धि में प्रातिपदिकान्त नकार का लोप नहीं होता है। ‘पदान्तस्य (८॥४॥३६) से पदान्त नकार को णकार आदेश का प्रतिषेध है। यह उसका पुरस्ताद् अपवाद है। परा-उपसर्ग में-पराण ।
विशेषः काशिकावृत्ति में-अनितेः।। अन्तः।। इस प्रकार योगविभाग करके सूत्रव्याख्या की है। अनिते: ।। उपसर्ग के रेफ से परवर्ती अनिति धातु के नकार को णकार आदेश होता है। पश्चात्-अन्त: ।। इसकी व्याख्या पूर्वोक्त है। महाभाष्य के अनुसार 'अनितेरन्त:' यह सूत्रपाठ है।
उदा०-प्राणिति । वह श्वास लेता है। पराणिति। वह श्वास से दूर होता है। णकारादेश:
(२०) उभौ साभ्यासस्य ।२०। प०वि०-उभौ १।२ (षष्ठ्यर्थे), साभ्यासस्य ६।१।
स०- अभ्यासेन सह वर्तते इति साभ्यास:, तस्य-साभ्यासस्य (बहुव्रीहिः)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org