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पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम्
उदा०- (पुरगा) पुरगावणम् । (मिश्रका ) मिश्रकावणम् । (सिध्रका ) सिध्रकावणम् । (शारिका) शारिकावणम् । (कोटरा) कोटरावणम् । (अग्रे) अग्रेवणम् ।
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आर्यभाषाः अर्थ - ( संहितायाम् ) सन्धि और (संज्ञायाम् ) संज्ञा विषय में ( पुरगा० ) पुरगा, मिश्रका, सिधका, शारिका, कोटरा, अग्रे इन ( पूर्वपदेभ्यः) पूर्वपदों से उत्तरवर्ती (वनम् ) वन शब्द के (नः) नकार के स्थान में (ण) णकार आदेश होता है।
उदा०- (पुरगा) पुरगावणम् । (मिश्रका ) मिश्रकावणम् । (सिध्रका ) सिध्रकावणम् । (शारिका) शारिकावणम् । (कोटरा) कोटरावणम् । (अग्रे) अग्रेवणम् । ये वनविशेषों की संज्ञायें। इनकी व्याख्या अष्टाध्यायी - प्रवचन के तृतीय भाग की अनुभूमिका ( पृ० ११) में लिखी हैं, वहां देख लेवें ।
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सिद्धि - (१) पुरगावणम् । यहां पुरग और वन शब्दों का षष्ठीतत्पुरुष समास है 'वनगिर्यो: संज्ञायां कोटरकिंशुलकादीनाम् ( ६ । ३ । ११६ ) से पूर्वपद को दीर्घ होता है। इस सूत्र से 'पुरग' पूर्वपद में अवस्थित रेफ से परवर्ती तथा अट्-व्यवायी (अ-ग्-आ-व्-अ) 'वन' शब्द के नकार को णकार आदेश होता है। ऐसे ही मिश्रकावणम्, सिध्रकावणम्, शारिकावणम्, कोटरावणम् ।
(२) अग्रेवणम् । यहां वन और अग्रे शब्दों का षष्ठीतत्पुरुष समास है । वनस्याऽग्रे इति अग्रवणम् । 'राजदन्तादिषु परम् ' (२ | २ | ३१ ) से समास में 'वन' शब्द का पर निपात होता है और 'हलदन्तात् सप्तम्याः संज्ञायाम् ' ( ६ 1३1९ ) से सप्तमी विभक्ति का अलुक् है ।
यहां 'अट्कुप्वाङ्ग्व्यवायेऽपिं (८ । ३ । २) से णकार आदेश प्राप्त था, पुन: इस सूत्र से आरम्भ इस नियम के लिये किया गया है कि इन पुरगा आदि शब्दों से परवर्ती 'वन' शब्द के नकार को णकार आदेश हो; अन्यत्र नहीं जैसे- कुबेरवनम् आदि ।
णकारादेश:
(५) प्रनिरन्तः शरेक्षुप्लक्षाम्रकार्ष्यखदिरपीयूक्षाभ्योऽसंज्ञायामपि । ५ ।
प०वि०- प्र-निर्-अन्तर्-शर- ईषु - प्लक्ष - आम्र-कार्ष्य-खदिरपीयूक्षाभ्य: ५।३ असंज्ञायाम् ७ ।१ अपि अव्ययपदम् ।
स०-प्रश्च निश्च अन्तश्च शरश्च इक्षुश्च प्लक्षश्च आम्रं च का च खदिरश्च पीयूक्षा च ताः - प्रनिरन्तः शरेक्षुप्लक्षाम्रकार्ष्यखदिरपीयूक्षाः,
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