________________
૬૬૬
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् क्विप्’ का सर्वहारी लोप होता है। 'ससजुषो रुः' (८।३।६६) से रुत्व करते समय सन्' के षकार को असिद्ध मानकर रुत्व और खरवसानयोर्विसर्जनीय:' (८।३।१५) से अवसानलक्षण रेफ को विसर्जनीय आदेश होता है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है।
विशेष: 'अभिसुसूपति' इस सनन्त पद में 'स्तौतिण्योरेव षण्यभ्यासात् (८।३।६१) के नियम से मूर्धन्य आदेश का प्रतिषेध सिद्ध है, अत: 'अभिसुसूः' यह क्विबन्त उदाहरण दिया गया है। मूर्धन्यादेशप्रतिषेधः
(६४) सदेः परस्य लिटि।११८ । प०वि०-सदे: ६१ परस्य ६१ लिटि ७।१। अनु०-संहितायाम्, स:, अपदान्तस्य, मूर्धन्य:, इणः, न इति चानुवर्तते।
अन्वय:-संहितायाम् इण: सदेरपदान्तस्य परस्य सो लिटि मूर्धन्यो न।
अर्थ:-संहितायां विषये इण उत्तरस्य सदेरपदान्तस्य परस्य सकारस्य स्थाने, लिटि परतो मूर्धन्यादेशो न भवति ।
उदा०-(सद्) अभि-अभिषसाद । परि-परिषसाद । नि-निषसाद । वि-विषसाद।
आर्यभाषा अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (इण:) इण वर्ण से उत्तरवर्ती (सदे:) सद् धातु के (अपदान्तस्य) अपदान्त (परस्य) परवर्ती (स.) सकार के स्थान में (लिटि) लिट् प्रत्यय परे होने पर (मूर्धन्य:) मूर्धन्य आदेश (न) नहीं होता है।
उदा०-(सद्) अभि-अभिषसाद । वह अभितः गया। परि-परिषसाद । वह सर्वतः गया। नि-निषसाद । वह बैठ गया। वि-विषसाद। वह खिन्न हुआ।
सिद्धि-अभिषसाद । यहां अभि-उपसर्गपूर्वक पद्लू विशरणगत्यवसादनेषु' (भ्वा०प०) धातु से लिट्' प्रत्यय है। लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।१।८) से सद्' धातु को द्विवचन होता है। इस सूत्र से सद्' धातु के अभ्यास से परवर्ती सकार को मूर्धन्य आदेश का प्रतिषेध होता है। 'स्थादिष्वभ्यासेन चाभ्यासस्य' (८।३।६४) के वचन से अभ्यास के व्यवधान में भी सदिरप्रते.' (८।३।६६) से परवर्ती सकार को मूर्धन्य आदेश प्राप्त था। अत: यह प्रतिषेध किया गया है। सद्' धातु के पूर्ववर्ती सकार को सदिरप्रते.' (८।३।६६) से मूर्धन्य होता है क्योंकि पर-सकार का प्रतिषेध किया है। परि-उपसर्ग में-परिषसाद । नि-उपसर्ग में-निषसाद । वि-उपसर्ग में-विषसाद ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org