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शब्द:
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् शब्दरूपम्
भाषार्थ: (२) सृपिः | पुरा क्रूरस्य विसृपः। क्रूर के विसर्पण से पूर्व।
(यजु० १।२८)। (३) सृजिः वाचो विसर्जनात्। वाणी के विसर्जन से। (४) स्पृशिः दिविस्पृशम्
धुलोक में स्पर्श करनेवाले को। (ऋ० १।१४२।८) (५) स्पृहिः । निस्पृहं कथयति। निष्कामभाव से कहता है। (६) सवनादयः | सवने सवने। प्रत्येक सदन में। सूते सूते।
प्रत्येक प्रसव में। सामे सामे।
प्रत्येक साम में। सवने सवने। सूते सूते । सोमे सोमे। सवनमुखे सवनमुखे। किंस्यतीति किंसंकिंसम् । अनुसवनमनुसवनम् । गोसनिंगोसनिम् । अश्वसनिमश्वसनिम्।
क्वचिदेवं गणपाठ:-सवने सवने। अनुसवनेऽनुसवने। संज्ञायां बृहस्पतिसवः । शकुनिसवनम् । सोमे सोमे। सूते सूते । संवत्सरे संवत्सरे। किंसंकिंसम् । बिसंबिसम् । मुसलंमुसलम् । गोसनिमश्वसनिम् । सवनादिः ।। (काशिका)।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (इण:) इण वर्ण से उत्तर (रपर०) रेफ जिससे परे है उस सकार के स्थान में तथा सृपि, सृजि, स्पृशि, स्पृहि और सवनादिगण में पठित शब्दों के (स:) सकार के स्थान में (मूर्धन्य:) मूर्धन्य आदेश (न) नहीं होता है।
उदा०-उदाहरण और उनका भाषार्थ संस्कृत-भाग में लिखा है।
(१) विस्रंसिका। यहां वि-उपसर्गपूर्वक संस्नु अध:पतने' (भ्वा०आ०) धातु से संज्ञायाम् (३।३।१०९) से 'वुल्' प्रत्यय है। स्त्रीत्व-विवक्षा में अजाद्यतष्टाप' (४।१।४) से टाप्' प्रत्यय और प्रत्ययस्थात्कात०' (७।३।४४) से इकारादेश है। इस सूत्र से वि' के इण्' वर्ण से परवर्ती रेफपरक 'संसिका' के अपदान्त (पदादि) सकार को मूर्धन्य आदेश का प्रतिषेध होता है।
(२) विस्रब्धः । यहां वि-उपसर्गपूर्वक सम्भु विश्वासे' (भ्वा०आ०) से 'निष्ठा (३।२।१०२) से 'क्त' प्रत्यय है। 'अनिदितां हल उपधाया: क्डिति (६।४।२४) से अनुनासिक का लोप, 'झषस्तथोधोऽध:' (८।२।४०) से तकार को धकार, 'झलां जश्
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