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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् 'अपदान्तस्य मूर्धन्यः' (८।३।५५) से विहित अपदान्त के अधिकार में यहां पदान्त सकार को मूर्धन्य आदेश का विधान किया गया है।
(२) सर्पिष्टमम् । यहां सर्पिस्' शब्द से 'अतिशायने तमबिष्ठनौ' (५।३।५५) से 'तमप्' प्रत्यय है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है। यजुस्' शब्द से-यजुष्टमम्।।
(३) चतुष्टयम् । यहां चतुस्' शब्द से संख्याया अवयवे तयप् (५।२।४२) से 'तयप्' प्रत्यय है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है।
(४) सर्पिष्ट्वम् । यहां सर्पिस्' शब्द से तस्य भावस्त्वतलौ' (५।१।११९) से त्व' प्रत्यय है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है। यजुस्' शब्द से-यजुष्ट्वम् ।
(५) सर्पिष्टा। यहां सर्पिस्' शब्द से पूर्ववत् तल्' प्रत्यय है। 'तलन्तः' (लिङ्गानुशासन १।१७) से तल् प्रत्ययान्त शब्द स्त्रीलिङ्ग होते हैं। अत: 'अजाद्यतष्टा (४।१।४) से स्त्रीलिङ्ग में टाप्' प्रत्यय है। यजुस्' शब्द से-यजुष्टा।
(६) सर्पिष्ट: । यहां सर्पिस्' शब्द से 'अपादाने चाहीयरुहो:' (५।४।४५) से तसि' प्रत्यय है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है। यजुस्' शब्द से-यजुष्टः ।।
(७) आविष्ट्यः । यहां 'आविस्' शब्द से 'अव्ययात् त्य' (५।११०४) सूत्र पर पठित 'आविसश्छन्दसि' इस वार्तिक से त्यप्' प्रत्यय है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है। मूर्धन्यादेश:
(४८) निसस्तपतावनासेवने।१०२। प०वि०-निस: ६१ तपतौ ७१ अनासेवने ७।१।
स०-आसेवनम्=पुन: पुन: करणम् । न आसेवनमिति अनासेवनम्, तस्मिन्-अनासेवने (नञ्तत्पुरुष:)।
अनु०-संहितायाम्, स:, मूर्धन्य इति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायां निस: सोऽनासेवने तपतौ मूर्धन्यः ।
अर्थ:-संहितायां विषये निस: सकारस्य स्थानेऽनासेवनेऽर्थे तपतौ परतो मूर्धन्यादेशो भवति।
उदा०-निष्टपति सुवर्णं सुवर्णकारः। सकृदग्निं स्पर्शयतीत्यर्थः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (निस:) निस् इसके (स:) सकार के स्थान में (अनासेवने) बार-बार न तपाने अर्थ में (तपतौ) तप धातु के परे होने पर (मूर्धन्य:) मूर्धन्य आदेश होता है।
__ उदा०-(तप) निष्टपति सुवर्ण सुवर्णकारः । सुनार एक बार सुवर्ण को अग्निस्पर्श देता है।
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