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धातुः उपसर्ग:
(६) सुट्
(७) स्तु
अड्व्यवाय:
परि
नि
परि
अड्व्यवाय:
परि
परि
4
वि
अव्यवायः
परि
च
नि
वि
(८) स्वञ्ज परि
नि
4 to
वि
अव्यवाय:
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
+4 do
परि
नि
वि
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शब्दरूपम्
पर्यषहत
न्यषहत
व्यषहत
परिष्करोति
पर्यष्करोत्
परिष्टौति
निष्टौति
विष्टौति
पर्यष्टोत्
न्यष्टौत्
पर्यष्वजत
न्यष्वजत
व्यष्वजत
आर्यभाषाः अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि- विषय में (इणुभ्यः) इणन्त (परिनिविभ्यः) परि, नि, वि इन (उपसर्गेभ्यः) उपसर्गों से परवर्ती (सेव०) सेव, सित, सय, वि, सह, सुट् स्तु, स्वञ्ज् इनके ( अपदान्तस्य ) अपदान्त (सः) सकार के स्थान में (अडव्यवायेऽपि ) अट्-अ -आगम के व्यवधान में और अव्यवधान में भी तथा (स्थादिषु) स्था आदि धातुओं में (अभ्यासेन) अभ्यास के ( व्यवाये) व्यवधान में (च) और (अभ्यासस्य) अभ्यास को (मूर्धन्यः) मूर्धन्य आदेश होता है।
व्यष्टौत्
परिष्वजते
निष्वजते
विष्वजते
भाषार्थ:
अट्-व्यवधान
उसने परितः सहन किया
1
उसने निम्नतः सहन किया ।
उसने विशेषत: सहन किया ।
वह परिष्कार करता है ।
अट्-व्यवधान
उसने परिष्कार किया ।
वह परित: स्तुति करता है।
वह निम्नतः स्तुति करता है ।
वह विशेषतः स्तुति करता है
अट्-व्यवधान
उसने परितः स्तुति की।
उसने निम्नतः स्तुति की।
उसने विशेषतः स्तुति की।
वह परित: आलिङ्गन करता है ।
वह निम्नत: आलिङ्गन करता है।
वह विशेषतः आलिङ्गन करता है ।
अट्-व्यवधान
उसने परित: आलिङ्गन किया।
उसने निम्नतः आलिङ्गन किया ।
उसने विशेषतः आलिङ्गन किया ।
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