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________________ ६५० धातुः उपसर्ग: (६) सुट् (७) स्तु अड्व्यवाय: परि नि परि अड्व्यवाय: परि परि 4 वि अव्यवायः परि च नि वि (८) स्वञ्ज परि नि 4 to वि अव्यवाय: पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् +4 do परि नि वि Jain Education International शब्दरूपम् पर्यषहत न्यषहत व्यषहत परिष्करोति पर्यष्करोत् परिष्टौति निष्टौति विष्टौति पर्यष्टोत् न्यष्टौत् पर्यष्वजत न्यष्वजत व्यष्वजत आर्यभाषाः अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि- विषय में (इणुभ्यः) इणन्त (परिनिविभ्यः) परि, नि, वि इन (उपसर्गेभ्यः) उपसर्गों से परवर्ती (सेव०) सेव, सित, सय, वि, सह, सुट् स्तु, स्वञ्ज् इनके ( अपदान्तस्य ) अपदान्त (सः) सकार के स्थान में (अडव्यवायेऽपि ) अट्-अ -आगम के व्यवधान में और अव्यवधान में भी तथा (स्थादिषु) स्था आदि धातुओं में (अभ्यासेन) अभ्यास के ( व्यवाये) व्यवधान में (च) और (अभ्यासस्य) अभ्यास को (मूर्धन्यः) मूर्धन्य आदेश होता है। व्यष्टौत् परिष्वजते निष्वजते विष्वजते भाषार्थ: अट्-व्यवधान उसने परितः सहन किया 1 उसने निम्नतः सहन किया । उसने विशेषत: सहन किया । वह परिष्कार करता है । अट्-व्यवधान उसने परिष्कार किया । वह परित: स्तुति करता है। वह निम्नतः स्तुति करता है । वह विशेषतः स्तुति करता है अट्-व्यवधान उसने परितः स्तुति की। उसने निम्नतः स्तुति की। उसने विशेषतः स्तुति की। वह परित: आलिङ्गन करता है । वह निम्नत: आलिङ्गन करता है। वह विशेषतः आलिङ्गन करता है । अट्-व्यवधान उसने परित: आलिङ्गन किया। उसने निम्नतः आलिङ्गन किया । उसने विशेषतः आलिङ्गन किया । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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