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________________ ६४६ | विषेवते। नि अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः धातुः | उपसर्ग: शब्दरूपम् । भाषार्थ: (१) सेव परि | परिषेवते। वह परित: सेवा करता है। नि निषेवते। वह निम्नत: सेवा करता है। वह विशेषत: सेवा करता है। अड्व्यवाय: अट्-व्यवधान | पर्यषेवत। वह परित: सेवा की। न्यषेवत। वह निम्नत: सेवा की। | व्यषेवत। वह विशेषत: सेवा की। षणभूत:(सन्) षणभूत (सन्) परिषिषेविषते वह परित: सेवा करना चाहता है। निषिषेविषते वह निम्नत: सेवा करना चाहता है। विषिषेविषते वह विशेषत: सेवा करना चाहता है। (२) सित: परि परिषित: परित: बंधा हुआ। (क्तान्त: निषितः निम्नत: बंधा हुआ। विशेषत: बंधा हुआ। (३) सय: परिषयः परित: बंधन। निम्नत: बंधन। विषय: विशेषत: बंधन। (४) सिवु परिषीव्यति वह परित: सिलाई करता है। निषीव्यति. वह निम्नत: सिलाई करता है। विषीव्यति वह विशेषत: सिलाई करता है। अट्-व्यवधान उसने परित: सिलाई की। उसने निम्नत: सिलाई की। व्यषीव्यत् उसने विशेषत: सिलाई की। (५) सह परिषहते वह परित: सहन करता है। | निषहते वह निम्नत: सहन करता है। | विषहते वह विशेषत: सहन करता है। विषित: निषय: अड्व्यवाय: पर्यषीव्यत् न्यषीव्यत् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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