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| विषेवते।
नि
अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः धातुः | उपसर्ग: शब्दरूपम् । भाषार्थ: (१) सेव परि | परिषेवते। वह परित: सेवा करता है।
नि निषेवते। वह निम्नत: सेवा करता है।
वह विशेषत: सेवा करता है। अड्व्यवाय:
अट्-व्यवधान | पर्यषेवत। वह परित: सेवा की। न्यषेवत।
वह निम्नत: सेवा की। | व्यषेवत। वह विशेषत: सेवा की। षणभूत:(सन्)
षणभूत (सन्) परिषिषेविषते वह परित: सेवा करना चाहता है। निषिषेविषते
वह निम्नत: सेवा करना चाहता है।
विषिषेविषते वह विशेषत: सेवा करना चाहता है। (२) सित: परि
परिषित:
परित: बंधा हुआ। (क्तान्त: निषितः
निम्नत: बंधा हुआ।
विशेषत: बंधा हुआ। (३) सय: परिषयः परित: बंधन।
निम्नत: बंधन।
विषय: विशेषत: बंधन। (४) सिवु परिषीव्यति वह परित: सिलाई करता है।
निषीव्यति. वह निम्नत: सिलाई करता है। विषीव्यति वह विशेषत: सिलाई करता है।
अट्-व्यवधान उसने परित: सिलाई की।
उसने निम्नत: सिलाई की।
व्यषीव्यत् उसने विशेषत: सिलाई की। (५) सह
परिषहते वह परित: सहन करता है। | निषहते वह निम्नत: सहन करता है। | विषहते
वह विशेषत: सहन करता है।
विषित:
निषय:
अड्व्यवाय:
पर्यषीव्यत् न्यषीव्यत्
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