________________
६४७
अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः उदा०-(आलम्बन) अवष्टभ्यास्ते। वह पकड़कर बैठता है। अवष्टभ्य तिष्ठति। वह आश्रय लेकर ठहरता है। (आविर्य) अवष्टब्धा सेना । सेना समीप है। अवष्टब्धा शरत् । शरद्ऋतु समीप है।
सिद्धि-(१) अवष्टभ्यास्ते। यहां अव-उपसर्गपूर्वक स्तम्भु प्रतिबन्धे (प०सौत्रधातु) से 'समानकर्तृकयो: पूर्वकाले (३।४।२१) से क्त्वा' प्रत्यय है। 'समासेऽनपूर्वे क्त्वो ल्यप् (७।१।३७) से 'क्त्वा' को ल्यप्' आदेश है। इस सूत्र से अव-उपसर्ग से परवर्ती स्तम्भ' के सकार को आलम्बन और आविदूर्य अर्थ में मूर्धन्य आदेश होता है। 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से तकार को टवर्ग टकारादेश होता है।
(२) अवष्टब्धा । यहां अव-उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त स्तम्भ' धातु से 'निष्ठा (३।२।१०२) से 'क्त' प्रत्यय है। 'झषस्तथो?ऽध:' (८।२।४०) से तकार को धकार आदेश और 'झलां जश् झशि (८१४१५२) से भकार को जश् बकार आदेश है। 'अजाद्यतष्टाप्' (४।१।४) से स्त्रीत्व-विवक्षा में टाप्' प्रत्यय है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है। मूर्धन्यादेश:
(१५) वेश्च स्वनो भोजने।६६ । प०वि०-वे: ५।१ च अव्ययपदम्, स्वन: ६१ भोजने ७१।
अनु०-संहितायाम्, स:, अपदान्तस्य, मूर्धन्य:, इणः, अडभ्यासव्यवाये, अपि, स्थादिषु, अभ्यासेन, च, अभ्यासस्य, उपसर्गात्, अवादिति चानुवर्तते।
अन्वय:-संहितायाम् इणो वेरवाच्च उपसर्गाद् भोजने स्वनोऽपदान्तस्य सोऽड्व्यवायेऽपि, स्थादिष्वभ्यासेन चाभ्यासस्य च मूर्धन्यः।
अर्थ:-संहितायां विषये इणन्ताद् वेरवाच्चोपसर्गात् परस्य भोजनेऽर्थे स्वनोऽपदान्तस्य सकारस्य स्थानेऽड्व्यवायेऽनड्व्यवायेऽपि, स्थादिषु चाभ्यासेन व्यवायेऽभ्यासस्य च, मूर्धन्यादेशो भवति।
उदा०- (स्वन्) वि-विष्वणति । अड्व्यवाये-व्यष्वणत् । अभ्यासव्यवाये-विषष्वाण । अव-अवष्वणति । अड्व्यवाये-अवाष्वणत् । अभ्यासव्यवाये-अवषष्वाण।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (इण:) इणन्त वि:) वि-उपसर्ग (च) और (अवात्) अब इस (उपसर्गात्) उपसर्ग से परवर्ती, (भोजने) खाना-पीना अर्थ में विद्यमान (स्वनः) स्वन् धातु के (अपदान्तस्य) अपदान्त (स:) सकार के स्थान में (अड्व्यवायेऽपि) अट्-आगम के व्यवधान और अव्यवधान में तथा (स्थादिषु) स्था आदि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org