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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
उदा०- (क.) विश्वतस्क: । उसने सर्वतः किया । (करत्) विश्वतस्करत्। उसने सर्वत: किया । ( करति) पयस्करति । वह दूध / जल बनाता है। (कृधि) उरु णस्कृधि (ऋ० ८1७५ 1११) । (कृतम्) सदस्कृतम् । सभा में किया हुआ निर्णय आदि ।
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सिद्धि-विश्वतस्क: । यहां 'क: ' शब्द में 'डुकृञ् करणे' (तना० उ०) धातु से 'लुङ्' प्रत्यय है । 'च्लि लुङि' (३ 1१/४३) से 'च्लि' प्रत्यय और इसका 'मन्त्रे घस० ' (२/४/८०) से लुक् हो जाता है। लकार के स्थान में 'तिप्' आदेश, 'कृ' धातु को गुण और इसे 'उरण् रपरः' (१1१1५१) से रपरत्व (कर्) 'हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात् ० ' ( ६ |१/६६ ) से अपृक्त त् (तिप्) का लोप और रेफ को विसर्जनीय आदेश है। 'बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेऽपिं (६/४/७५) से अट् आगम का अभाव है। इस 'क: ' शब्द के परे होने पर विश्वत: ' के विसर्जनीय को सकारादेश होता है।
(२) करत्। यहां पूर्वोक्त 'कृ' धातु से 'लङ्' प्रत्यय है। 'कृमृदृरुहिभ्यश्छन्दसि' (३/१/५९ ) से 'अङ्' विकरण- प्रत्यय और 'ऋदृशोरङि गुण:' ( ७।४।१६) से होता है । पूर्ववत् 'अट्' आगम का अभाव है। सूत्र - कार्य पूर्ववत् है ।
गुण
(३) करति । यहां पूर्वोक्त 'कृ' धातु से 'लट्' प्रत्यय है । 'कर्तरि शप्' (३ | १/६८) से छन्द में 'शप्' विकरण-प्रत्यय है । सूत्र- कार्य पूर्ववत् है ।
(४) कृधि । यहां पूर्वोक्त 'कृ' धातु से 'लोट्' प्रत्यय है । सेर्ह्यपिच्च' (३।४।८७) से 'सिप्' के स्थान में हि' आदेश और इसे 'श्रुशृणुपृकृवृभ्यश्छन्दसि' (६ । ४ । १०२ ) से 'धि' आदेश और 'बहुलं छन्दसिं ' (२/४ /७३) से विकरण- प्रत्यय का लुक् होता है। सूत्र - कार्य पूर्ववत् है ।
(५) सदस्कृतम् । यहां 'सप्तमी शौण्डै: ' (२ | १/४०) में सप्तमी' इस योगविभाग से सप्तमीतत्पुरुष समास है - सदसि कृतमिति सदस्कृतम् । सूत्र- कार्य पूर्ववत् है ।
सकारादेश:
(१६) पञ्चम्याः परावध्यर्थे । ५१ । प०वि०-पञ्चम्या: ६।१ परौ ७ ।१ अध्यर्थे ७ । १ । सo - अधेरर्थ इति अध्यर्थ:, तस्मिन् - अध्यर्थे (षष्ठीतत्पुरुषः ) । अनु० - पदस्य, संहितायाम्, विसर्जनीयस्य सः, छन्दसीति चानुवर्तते । अन्वयः - संहितायां छन्दसि पञ्चम्याः पदस्य विसर्जनीयस्याऽध्यर्थे परौ सः ।
अर्थ:-संहितायां छन्दसि च विषये पञ्चम्यन्तस्य पदस्य विसर्जनीयस्य स्थानेऽध्यर्थके परिशब्दे परतः सकारादेशो भवति ।
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