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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
आर्यभाषा: अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि - विषय में (कस्कादिषु) कष्कः इत्यादि (पदेषु) पदों में (विसर्जनीयस्य ) विसर्जनीय के स्थान में (कुप्वोः ) कवर्ग और पवर्ग वर्ण परे होने पर यथायोग (सः) सकार अथवा (षः) षकारादेश होता है।
उदा० - कस्क: । कौन-कौन। कौतस्कुतः । कहां-कहां से आया हुआ । भ्रातुष्पुत्रः । भाई का पुत्र (भतीजा) ।
सिद्धि - (१) कस्क - आदि गण में पठित शब्दों में विसर्जनीय के स्थान में सकार वा षकार आदेश स्पष्ट है। 'नित्यवीप्सयो:' (८|१|४) से वीप्सा अर्थ में द्विर्वचन है । (२) कौतस्कुत: । 'कुतस्कुत: ' शब्द से 'तत आगत:' (४।३।७४) से आगत-अर्थ में 'अण्' प्रत्यय है । पूर्ववत् द्विर्वचन है।
(३) भ्रातुष्पुत्र: । यहां भातृ और पुत्र शब्दों का षष्ठीतत्पुरुष समास है । 'ऋतो विद्यायोनिसम्बन्धेभ्य:' ( ६ 1३1२१) से षष्ठी का अलुक् होता है। इस सूत्र से त्व होता है।
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यहां 'कुवो: कौ च' (८ | ३ | ३७) से क जिह्वामूलीय अथवा तप उपध्मानीय आदेश प्राप्त था । यह उसका अपवाद है ।
सकारादेशविकल्पः
( १७ ) छन्दसि वाऽप्राम्रेडितयोः । ४६ । प०वि०-छन्दसि ७।१ वा अव्ययपदम्, अप्राम्रेडितयोः ७ । २ । सo - प्रश्च आम्रेडितं च ते प्राम्रेडिते, न प्राम्रेडिते इति अप्राम्रेडिते, तयो:-अप्राम्रेडितयो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भितनञ्तत्पुरुषः ) ।
अनु०-पदस्य, संहितायाम्, विसर्जनीयस्य सः, कुप्वोरिति चानुवर्तते । अन्वयः - संहितायां छन्दसि पदस्य विसर्जनीयस्याऽप्राम्रेडितयो: कुप्वोर्वा सः ।
अर्थ:-संहितायां छन्दसि च विषये पदस्य विसर्जनीयस्य स्थाने प्र-आम्रेडितवर्जितयोः कुप्वोः परतो विकल्पेन सकारादेशो भवति ।
उदा०-अय:पात्रम्, अयस्पात्रम् (शौ०सं० ८ । १३ । २ ) । विश्वत :पात्रम्, विश्वतस्पात्रम् । उरुण:कार:, उरुणस्कारः ।
आर्यभाषा: अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि और (छन्दसि ) वेदविषय में ( पदस्य) पद के (विसर्जनीयस्य) विसर्जनीय के स्थान में ( अप्राम्रेडितयोः) प्र और आम्रेडित पद से भिन्न (कुप्वोः ) कवर्ग और पवर्ग वर्ण परे होने पर (वा) विकल्प से (सः) सकारादेश होता है।
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