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अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः
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उदा० - शम्वस्तु वेदिः ( द्र० - ऋ० ७/३५ 1७) शमु अस्तु वेदिः । यज्ञकुण्डादि हमारे लिए सुख ही हों । तद्वस्य परेतः । तद् अस्य परेत: । क्या वह इससे दूर है। किम्वाrayaम्, किमु आवपनम् (यजु० २३1९ ) | आवपन (बोना) का आधार क्या है ?
सिद्धिदृ-शम्वस्तु। शम्+उ+अस्तु । यहां इस सूत्र से मय् वर्ण (म्) से परवर्ती उञ् के उकार को अच् वर्ण परे होने पर वकारादेश होता है। विकल्प-पक्ष में वकारादेश नहीं है - शमुअतु वेदिः ।
'उञ ॐ' (१1१1१७) से 'उज्' के प्रगृह्य संज्ञा होने से प्लुतप्रगृह्या अचि नित्यम्' (६ 1१1१२९) से प्रकृतिभाव प्राप्त था, अत: यह वकारादेश क विधान किया गया है। 'पूर्वत्रासिद्धम्' (८ 1२ 1१ ) से वकारादेश के पूर्वत्र कार्य में असिद्ध होने से 'मोऽनुस्वारः' ( ८1३ 1 २३) से हल् (व्) परे होने पर मकार के अनुस्वार आदेश नहीं होता है। ऐसे ही - तद्वस्य परेतः, किम्वावपनम् ।
स- आदेश:
(२) विसर्जनीयस्य सः । ३४ । प०वि०-विसर्जनीयस्य ६।१ स: १।१।
अनु० - पदस्य, संहितायामिति चानुवर्तते । 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' ( ८ | ३ |१५ ) इत्यस्मान्मण्डूकोत्प्लुत्या 'खरि' इत्यनुवर्तनीयम् । अन्वयः - संहितायां पदस्य विसर्जनीयस्य खरि सः ।
अर्थ:-संहितायां विषये पदस्य विसर्जनीयस्य खरि परत: सकारादेशो
भवति ।
उदा०-देवश्छादयति। देवष्ठक्कुरः । देवस्थुडति । देवश्चिनोति । देवष्टीकते । देवस्तरति ।
आर्यभाषाः अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि - विषय में (पदस्य) पद के (विसर्जनीयस्य ) विसर्जनीय को (खरि) खर् वर्ण परे होने पर (सः) सकारादेश होता है।
उदा०-देवश्छादयति । देव आच्छादित करता है, ढकता है। देवष्ठक्कुरः । देव ठाकुर है। देवस्युति । देव ढकता है। देवश्चिनोति । देव चुनता है। देवष्टीकते । देव जाता है। देवस्तरति । देव तैरता है ।
सिद्धि-देवश्छादयति। यहां 'देव' शब्द से 'सु' प्रत्यय है । 'ससजुषो रु: ' (८।२।६६) से सकार को 'रु' आदेश और 'खरवसानयोर्विसर्जनीयः' (८ । ३ ।१५) से 'ह' के रेफ को विसर्जनीय आदेश होता है। इस विसर्जनीय को इस सूत्र से खर् वर्ण (छ्) परे होने पर सकारादेश होता है और इसे 'स्तो: श्चुना श्चुः' (८/४/४०) से शकारादेश
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