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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् यकार आदेश होता है। 'ओतो गार्ग्यस्य' (८।३।२०) से इस यकार का लोप होता हैभो अत्र । ऐसे ही-भगोयत्र, भगो अत्र आदि। ऐसे ही सर्वत्र समझें।
विशेष: ईषत्स्पृष्टकरणा अन्तस्था: (पा०शि०) के अनुसार अन्तस्थ वर्णों का ईषत्स्पृष्ट प्रयत्न है। वर्णों के उच्चारण में तालु आदि स्थान और जिहामूल आदि करणों की शिथिलता को लघुप्रयत्नतर कहते हैं। लोपादेशः
(७) लोपः शाकल्यस्य।१६। प०वि०-लोप: १।१ शाकल्यस्य ६।१। अनु०-पदस्य, संहितायाम्, अपूर्वस्य, अशि, व्योरिति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायामपूर्वयो: पदयोारशि लोप:, शाकल्यस्य ।
अर्थ:-संहितायां विषयेऽवर्णपूर्वयोः पदान्तयोर्वकारयकारयोरशि परतो लोपो भवति, शाकल्यस्याचार्यस्य मतेन।
उदा०-कयास्ते (पाणिनि:)। क आस्ते (शाकल्य:)। काकयास्ते। काक आस्ते । अस्मायुद्धर । अस्मा उद्धर । द्वावत्र । द्वा अत्र । असावादित्य:, असा आदित्यः ।
__ आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (अपूर्वयोः) जिनके पूर्व में अवर्ण है उन (पदयो:) पदान्त में विद्यमान (व्योः) वकार और यकारों का (लोप:) लोप होता है (शाकल्यस्य) शाकल्य आचार्य के मत में।
उदा०-कयास्ते (पाणिनि)। क आस्ते (शाकल्य)। कौन बैठता है। काकयास्ते। काक आस्ते। कौवा बैठता है। अस्मायुद्धर । अस्मा उद्धर । इसके लिये उद्धृत कर, निकाल । द्वावत्र । द्वा अत्र । दोनों यहां हैं। असावादित्यः, असा आदित्य: । वह सूर्य है।
सिद्धि-कयास्ते। क+सु। क+स् । क+रु। क+र् । क+य्+आस्ते। कयास्ते।
यहां अवर्णपूर्वी 'ह' के रेफ को पाणिनि मुनि के मत में- 'भोभगोअघोअपूर्वस्य योऽशि' (८।३।१७) से यकारादेश होता है। इस सूत्र से शाकल्य आचार्य के मत में इस यकार का लोप होता है-क आस्ते। ऐसे ही-काकयास्ते, काक आस्ते इत्यादि। लोपादेशः
(८) ओतो गाय॑स्य ।२०। प०वि०-ओत: ५।१ गार्ग्यस्य ६।१। अनु०-पदस्य, संहितायाम्, अशि, व्योः, लोप इति चानुवर्तते।
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